पृष्ठ:साहित्य सीकर.djvu/१३

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वेद

तब वह लन्दन के "ब्रिटिश म्यूजियम' नामक पुस्तकालय को भेजा गया। वहाँ उसकी और भी कितनी ही कापियाँ हुईं। इस प्रकार योरप में वेदों का प्रचार हुआ।

इसके पहले कोलव्रुक साहब ने भी वेद-प्राप्ति की चेष्टा की थी; पर किसी दक्षिणी पंडित ने स्तुतियों से पूर्ण एक ग्रन्थ उन्हें दे दिया और कहा, यही वेद है। भला म्लेच्छों को कहीं दक्षिणात्य पंडित वेद दे सकते हैं? ऐसा ही धोखा एक और साहब को भी दिया गया था। मदरास के किसी शास्त्री ने सत्रहवीं शताब्दी में एक कृत्रिम यजुर्वेद की पुस्तक फादर राबर्ट डी नोविली नामक पादरी को देकर उससे बहुत सा रुपया ऐंठ लिया। यह ग्रन्थ १७६१ ईसवी में पेरिस के प्रधान पुस्तकालय में पहुँचा। वहाँ पहले इसकी बड़ी कदर हुई। पर सारा भेद पीछे से खुल गया। अब इस तरह की धोखेबाजी का कोई डर नहीं। अब तो इङ्गलेंड, फ्रांस और जर्मनी में बड़े-बड़े वेदज्ञ पंडित हैं। वेदों के सम्बन्ध में वे नई-नई बातें निकालते जाते हैं, नये नये ग्रन्थ और टीका-टिप्पणियाँ प्रकाशित करते जाते हैं। वेदाध्ययन में वे अहर्निश रत रहते हैं। क्या ही उत्तम बात हो जो पंडित सत्यव्रत सामश्रमी की तरह इस देश के भी पंडित वैदिक ग्रन्थों के परिशीलन और प्रकाशन में परिश्रम करें।

वेद को हिन्दूमात्र आदर की दृष्टि से देखते हैं, और देखना ही चाहिये। वेद हमारा अति प्राचीन धर्म-ग्रन्थ है। यथा-शास्त्र वेदगान सुन कर अपूर्व आनन्द होता है। वेदों की भाषा यद्यपि बहुत पुरानी, अतएव क्लिष्ठ है, तथापि उसका कोई-कोई अंश बहुत ही सरस है—ऐसे अंशों के पाठ से कविता-प्रेमी जनों को वही आनन्द मिलता है जो कालिदास और भवभूति आदि के ग्रन्थों से मिलता हैं। वेदों की "त्रयी" संज्ञा है। त्रयी कहने से ऋक्, यजु और साम, इन्हीं तीन