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कवायद-परेड की पुस्तकों में रोमन लिपी

अब हिन्दुओं, मुसल्मानो, सिक्खों, पहाड़ियों गोरखों तथा अन्य सैनिक को उनकी लिपि के दर्शन दुर्लभ हो जायँगे। और बहुत संभव है, वे दुर्लभ हो भी गये हों। यह सच है या नहीं और इस नई आज्ञा से सरकार ने क्या लाभ सोचा है, इसकी पूँछपाँछ लेजिस्लेटिव कौंसिल और कौंसिल आप् स्टेट से कोई मेम्बर साहब चाहे तो कर सकते हैं। परन्तु उन बेचारों को ऐसे छोटे-छोटे कामों के सम्बन्ध में सरखपी करने की क्या जरूरत? और जरूरत हो भी तो उन्हें इसकी खबर भी कैसे मिले! उनमें से शायद ही किसी भूले-भटके की दृष्टि इस नोट पर पड़े। फौजी महकमे से प्रकाशित पुस्तकों और आज्ञा-पत्रों में क्या लिखा रहता है और कब क्या निकलता है, इसकी जानकारी प्राप्त करने की फुरसत उन्हें कहाँ? देश का दुर्भाग्य!

कौंसिल और असेम्बली के अनेक देश-भक्त मेम्बर फौज में हिन्दुस्तानी अफसरों की वृद्धि और अधिकता कर देने के लिए बड़ी-बड़ी चेष्टायें कर रहे हैं। सरकार भी उन्हें दाद देने पर तुली हुई है। कुछ सुभीते उसने कर भी दिये हैं। पर वह लम्बी दौड़ के लिए तैयार नहीं। वह धीरे-धीरे कदम बढ़ाना चाहती है। इतना धीरे जितना कि नीचे दिये गये एक देहाती गणित-प्रश्न के लँगड़े की चाल से सूचित होता है—

लँगड़ा चला गङ्ग नहाने सो दिन में अँगुल भर जाने।
अस्सी कोस गङ्ग का तीर कितने दिन में पहुँचे वीर?

सो इधर तो सरकार चींटी की चाल से भी धीमी चाल से फौजी अफसरों की संख्या में हिन्दुस्तानियों की वृद्धि करना चाहती है, उधर उनकी लिपि का वह गलहस्त दे रही है और शायद दे भी चुकी है। इसका क्या मतलब है, सो हम जैसे मन्द बुद्धियों की समझ के बाहर की बात है। प्रजा के प्रतिनिधि और कौंसिलों के मेम्बर महोदय इसे