एक तरह का पाठ पढ़ने लगे, किसी के और तरह का। यह पाठ-भेद यहाँ तक बढ़ गया कि सामवेद की सौ तक शाखायें हो गईं! परन्तु अब ये सब शाखा पाठ नहीं मिलते! कुछ ही मिलते हैं।
वेदों के व्याख्यान अर्थात् टीका का नाम "ब्राह्मण" है। बहुत लोग संहिता और ब्राह्मण दोनों को "वेद" संज्ञा मानते हैं। ये कात्यायन के "मन्त्र ब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्" इस वाक्य का प्रमाण देते हैं। परन्तु यह बात विचारणीय है! ब्राह्मण ग्रन्थों में वैदिक मंत्रों का मतलब समझाया गया है। और, और भी कितनी ही बातें हैं। अतएव उनकी रचना वेदों के साथ ही हुई मानी जा सकती। वैदिक मन्त्रों का आशय समझने में जब कठिनाई पड़ने लगी होगी तब "ब्राह्मण" बनाये गये होंगे, पहले नहीं। ऋग्वेद के ब्राह्मणों में विशेष करके होता के कामों का विधान है। यजुर्वेद के ब्राह्मणों में अध्वर्यु के और सामवेद के ब्राह्मणों में उद्गाता के। यज्ञ-सम्बन्धी बातों को खूब समझाने और यज्ञ-कार्य्य का सम्बन्ध वैदिक मन्त्रों से अच्छी तरह बतलाने ही के लिये ब्राह्मणों को सृष्टि हुई है! संहिता पद्य में है, ब्राह्मण गद्य में हैं। गद्य के बीच में कहीं कहीं "गाथा" नामक पद्य भी ब्राह्मणों में है।
ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्त में "अरण्यक" है। जो घर छोड़कर बन चले गये हैं, अतएव जिन्होंने यज्ञ करना बन्द कर दिया है, ये "आरण्यक" ग्रन्थ उन्हीं के लिये हैं। उन्हीं के काम की बातें इनमें हैं। "आरण्यक" से उतर कर उपनिषद् हैं। वे सब ज्ञानकाण्ड के अन्तर्गत हैं।
यश सम्बन्धी क्रिया-कलाप, अर्थात् कर्म्मकाण्ड का, विषय जब बहुत पेचीदा हो गया और साधारण आदमी ब्राह्मण ग्रन्थों का ठीक-ठीक मतलब समझने अथवा तदनुसार क्रिया निर्वाह करने में असमर्थ होने लगे, तब श्रौत; गृह्य और धर्म-सूत्रों की उत्पत्ति हुई। इन ग्रन्थों में