सब बातें थोड़े में समझाई गई हैं। श्रौत-सूत्रों में श्रुति (यहाँ "ब्राह्मण" से मतलब है) में उल्लिखित बड़े-बड़े यज्ञों के विधान आदि हैं। गृह्य सूत्रों में जनन, मरण, विवाह आदि संस्कारों की विधि है, और धर्म-सूत्रों में धर्म-सम्बन्धी, अर्थात् धर्मशास्त्रों या स्मृतियों की बातें हैं। इनके सिवा "अनुक्रमणी" नामक ग्रन्थों की गिनती भी वैदिक-साहित्य में की जाती है। इन ग्रन्थों में वेदों के पाठ आदि का क्रम लिखा है। यह इसलिए किया गया है जिसमें वेदों का कोई अंश खो न जाय, अथवा उसमें पाठान्तर न हो जाय। एक अनुक्रमणी में तो ऋग्वेद के सूक्तों की, मन्त्रों की, शब्दों की यहाँ तक कि अक्षरों तक की गिनती भी दी है।
प्रातिशाख्य, परिशिष्ट, वृहद्देवता, निरुक्त आदि भी वैदिक साहित्य के अङ्ग हैं।
ऋग्वेद सब वेदों से पुराना है। वही सब से अधिक महत्व का भी है। मण्डल नामक १० अध्यायों में वह विभक्त है। कोई १५ प्रकार के वैदिक-छन्दों में उसकी रचना हुई है। ऋग्वेद का कोई चतुर्थांश गायत्री नामक छन्द में है। ऐसे तीन ही छन्द हैं जिनका प्रयोग अधिकता के साथ किया गया है और छन्दों का कम प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना भिन्न-भिन्न ऋषियों के द्वारा भिन्न भिन्न समय में हुई है। इस वेद के ऋषि प्रतिभाशाली कवि थे—कवि नहीं श्रेष्ठ कवि थे। इसके अधिकांश मंत्रों की रचना वैदिक देवताओं को उद्देश करके की गई है। उनमें अनेक बल-वीर्य, शक्ति, प्रभुता, औदार्य आदि की प्रशंसा है। इन मंत्रों के रचयिता ऋषियों ने देवताओं की स्तुति और प्रशंसा के द्वारा उनसे लौकिक सुख प्राप्ति के लिये प्रार्थना की है। बहुत से पशु, बहुत से पुत्र-पौत्र, बहुत सा ऐश्वर्य्य, दीर्घायु और शत्रुओं पर विजय प्राप्ति के लिए उन्होंने देवताओं की स्तुति की है। लौकिक सुख-प्राप्ति की तरफ उनका ध्यान