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साहित्य-सीकर

अधिक था, पारलौकिक की तरफ कम। यज्ञों के सम्बन्ध में अग्नि और सोम आदि देवताओं के लम्बे-लम्बे स्तोत्रों से ऋग्वेद भरा हुआ है। बीच-बीच में याज्ञिक विषयों के आने से स्तोत्र-जनित रसानुभव में यद्यपि कुछ विधात होता है तथापि जिस सादगी और जिस भक्ति-भाव पुरातप्त ऋषियों ने अपने विचार प्रकट किये हैं वह अवश्य प्रशंसनीय है। इन्द्र, वरुण, अग्नि, मातरिश्वम्, सविता, पूषण, ऊषा आदि जितने देवताओं की स्तुति की गई है प्रायः उन सब से मतलब किसी न किसी प्राकृतिक पदार्थ से है। अर्थात् प्राकृतिक वस्तुओं और प्राकृतिक दृश्यों ही को देवता मान कर, या उन पर देवत्य का आरोप करके, उनका स्तवन किया गया है। एक ऋषि आश्चर्यपूर्वक कहता है, ये तारे दिन में कहाँ चले जाते हैं? तीसरे को यह विस्मय हो रहा है कि बड़ी-बड़ी अनेक नदियों के गिरने पर भी क्यों समुद्र अपनी हद से बाहर नहीं जाता? इसी तरह आश्चर्य और कौतुक के वशीभूत होकर प्राचीन ऋषियों ने प्राकृतिक पदार्थों को देवता मानना आरम्भ कर दिया। इस आरम्भ का अन्त कहाँ जाकर पहुँचा, इसे कौन नहीं जानता? ऋग्वेद के ३३ देवता बढ़ते-बढ़ते ३३ करोड़ हो गये।

मीमांसा-दर्शन के कर्त्ता जैमिनि का मत है कि "देवता" नाम के कोई सजीव पदार्थ नहीं। "इन्द्र" कहने से इस शब्द ही को देवता मान लेना चाहिये। अपने दर्शन के छठे अध्याय में—

"फलार्थत्वात् कम्मणः शास्त्रं सर्वाधिकारं स्यात्"

इस सूत्र से आरम्भ करके आपने देवता विषयक बहुत सी बातें लिखी हैं। आपके कथन का सारांश यह है कि वैदिक देवताओं के न जीव हैं, न शरीर। यदि ये देवता शरीरी होते तो यज्ञ के समय आकर जरूर उपस्थित होते। सो तो होना नहीं। यदि यह कहें कि वे आते तो हैं, पर अपनी महिमा के बल से हम लोगों की आँखों से