के पहले का उनका कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं मिला जिसमें प्राकृत भाषा का प्रयोग किया गया हो। इससे सूचित है कि छठीं शताब्दी के पहले प्राकृत भाषा साहित्य में व्यवहृत होने योग्य न हुई थी। अतएव जो लोग इस भाषा का इससे अधिक प्राचीन बताते हैं उन्हें इन प्रमाणों और युक्तियों पर विचार करना चाहिए।
पाली भाषा किसी समय, प्रायः समस्त आर्य्यावर्त के जन-साधारण की भाषा थी। परन्तु यह सौभाग्य बेचारी प्राकृत को नहीं प्राप्त हो सका। प्राकृत भाषा, एक ही रूप में, सारे देश की भाषा कभी नहीं हुई। भिन्न-भिन्न प्रान्तों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्राकृत व्यवहार में आती थी। इसका कारण शायद यह था कि अशोक के समय की तरह, पीछे से, सम्पूर्ण देश पर एक ही राजा की सत्ता न थी। देश में कितने ही स्वाधीन राज्यों की संस्थापना हो गई थी। उसका पारस्परिक सम्बन्ध बहुत कुछ टूट गया था। छठीं शताब्दी में लिखे गये प्राकृत-प्रकाश नामक ग्रन्थ देखने से मालूम होता है कि उस समय आर्य्यदेश में चार प्रकार की प्राकृत भाषायें प्रचलित थीं। उनके नाम हैं—पंजाबी, उज्जैनी, मागधी और पैशाची। वररुचि, सुबन्धु और बाणभट्ट के ग्रन्थों से प्रकट होता है कि इनमें से प्रथम तीन भाषाओं में परस्पर अधिक भेद न था; पर उन तीनों से चौथी भाषा में अपेक्षाकृत अधिक भिन्नता थी। औरों की अपेक्षा पैशाची प्राकृत का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना विशेष परिश्रम-साध्य था। वृहत्कथा नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ इसी पैशाची प्राकृत में रचा गया था। बाणभट्ट की कादम्बरी में एक जगह लिखा है कि राजकुमार जैसे अन्य विद्याओं में कुशल थे वैसे ही वृहत्कथा के पाठ में भी कुशल थे। अर्थात् अन्यान्य भाषाओं की तरह वे पैशाची भाषा भी जानते थे। इससे भी पैशाची भाषा के क्लिष्ट होने की सूचना, इशारे के तौर पर मिलती है। यहाँ तक तो गनीमत थी। पर इसके कुछ दिनों बाद देश के भिन्न-भिन्न