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संस्कृत-साहित्य का महत्त्व

विचार करने के लिए हमें वह साधन सामग्री देती है। उसे देखकर हमें अपने प्राचीन गौरव का अभिमान होने लगता है। उससे हम जान सकते हैं कि हमारा अस्तित्व कितना प्राचीन है। संस्कृत की वर्णमाला-रचना बड़ी विचित्र है। उसके उच्चारण की शैली अपूर्व है। उसका भाषा सौन्दर्य भी बहुत अधिक है। संस्कृत साहित्य के अवलोकन से हम यह जान सकते हैं कि बोल-चाल की भाषायें किस प्रकार बदलती रहती हैं और साहित्य की भाषा किस प्रकार अचल रहती है—उसका रूप जैसे का तैसे बना रहता है। संस्कृत साहित्य के अध्ययन से हमको प्राचीन इतिहास का ज्ञान होता है। वह हमें बताता है कि किस प्रकार प्राचीन आर्य, धीरे-धीरे अपनी मानसिक उन्नति करते गये; किस प्रकार वे क्रमाक्रम से एक से एक उत्तम तत्वों की खोज करते गये; किस प्रकार हाथियों की पूजा करने वाले प्राचीन आर्य, सृष्टि की उत्पत्ति पर भी विचार करके अखण्डनीय सिद्धान्तों का ज्ञान भी प्राप्त कर सके।

संस्कृत-साहित्य का विस्तार बहुत है। वह पुष्ट भी खूब है। अर्थात् उसमें ग्रंथों की संख्या भी बहुत है और वे ग्रंथ भी महत्वपूर्ण और उपयोगी विषयों पर लिखे गये हैं। पाली, मागधी, शौरसेनी आदि प्राचीन तथा वर्तमान देशी भाषाओं के साहित्य को छोड़ दें, तो भी उसका महत्व कम नहीं होता। लैटिन और ग्रीक—इन दोनों भाषाओं का साहित्य मिल कर भी संस्कृत साहित्य की बराबरी नहीं कर सकता। १८९१ ईसवी तक कोई चालीस हज़ार संस्कृत ग्रंथों की नामावली तैयार हो सकी थी। कितने ही ग्रंथ तो उसमें शामिल ही नहीं हुए। भारत के प्रत्येक कोने में संस्कृत के ऐसे बीसियों प्राचीन ग्रंथों के नाम सुनाई पड़ते हैं, जो अब उपलब्ध नहीं। यही नहीं, एशिया के दूर स्थानों में भी ऐसे ही अनेक नाम सुने जाते हैं। गोबी नाम के रेगिस्तान में गढ़ी हुई संस्कृत-साहित्य सम्बन्धिनी बहुत सी सामग्री मिली है।