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साहित्य-सीकर

चीन, जापान, कोरिया, तिब्बत और मँगोलिया में भी संस्कृत-ग्रंथ पाये गये हैं। बौद्धों में पुण्डरीक नाम का एक बड़ा भारी विद्वान् हो गया है। उसे बौद्ध लोग अवलोकितेश्वर का अवतार मानते हैं। उसके एक ग्रंथ से पता चलता है कि रोम, नील नदी का प्रान्त, फारिस आदि देश भी संस्कृत-साहित्य के ऋणी हैं। मैडेगास्कर से फारमोसा टापू तक ही नहीं, उससे भी दूर दूर तक प्रचलित सैकड़ों भाषाओं और बोलियों का मूलाधार संस्कृत ही है।

यह तो संस्कृत-साहित्य के विस्तार की बात हुई। इतने से आपको उसके फैलाव की कुछ कल्पना-मात्र हो सकती है। पर उसकी निश्चित सीमा कोई नहीं बता सकता। जो संस्कृत-साहित्य आज उपलब्ध है वह बहुत प्राचीन नहीं। वह तो नई चीज़ है—किसी शास्त्र विशेष या कला विशेष से सम्बन्ध रखने वाली नवीन खोज का फल है। प्राचीन ग्रंथ तो भूतकालरूपी महा समुद्र में लुप्त हो गये। देखिए, पाणिनि अपने ग्रंथ में लिखते हैं कि उनके पूर्ववर्ती संस्कृत व्याकरण के २५ शाखा भेद थे। कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र में तत्पूर्ववर्ती अर्थशास्त्र के १० भेदों का उल्लेख है। कोहल के नाट्य-शास्त्र से भी पता चल सकता है कि इस शास्त्र के भी बहुत से शाखा भेद थे। प्रत्येक शाखा के सूत्र, भाष्य, वात्तिक और निरुक्त आदि अलग-अलग थे। वात्स्यायन के काम सूत्र में भी ऐसे ही उल्लेख पाये जाते हैं। उसमें काम-शास्त्र के पूर्व रचयिताओं का उल्लेख तो है ही, पर, उस शास्त्र के सातों अधिकरणों के पूर्ववर्ती आचार्यों का भी उल्लेख है। संस्कृत के किसी श्रौत या गृह्य सूत्र-ग्रंथ को ले लीजिये। आपको कितने ही लेखकों और ग्रंथों के नाम उसमें मिलेंगे। दर्शन, अलङ्कार, व्याकरण और छंद-शास्त्र का भी यही हाल है।

अतएव यही कहना पड़ता है कि संस्कृत-साहित्य बहुत विस्तृत है, वह खूब पुष्ट है, वह बहुत प्राचीन है। उसके भीतर भरी हुई सामग्री में