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संस्कृत-साहित्य का महत्त्व

करके उनके योग से गोलियाँ, चूर्ण, घृत और तैल आदि तैयार करने की विधि निकाली। क्या यह सब बिना ही प्रयोग किये हो गया? ईसा के कोई एक हजार वर्ष पहले भी भारतवासियों को मनुष्य के शरीर की हड्डियों का ज्ञान था। वे जानते थे कि शरीर में कितनी हड्डियाँ हैं, कौन हड्डी किस जगह है और उसका आकार कैसा है। जानवरों की नस नस का ज्ञान भी उन्हें था। अर्थात् वे शरीर-शास्त्र के भी ज्ञाता थे। वे जर्राही में भी बड़े चतुर थे। अस्थियाँ काटने में जिन यन्त्रों को वे उपयोग करते थे उनको देखने ही से यह बात सिद्ध है। चिकित्सा शास्त्र की सभी शाखाओं का ज्ञान उनको बहुत कुछ था। वे धातुओं और अन्य खनिज वस्तुओं का उपयोग भी जानते थे। उनसे वे अनेक प्रकार की औषधियाँ तैयार करते थे। अर्थात् रसायन-शास्त्र में भी उनका काफी दखल था। इस शास्त्र के प्रयोगों में प्राचीन भारतवासियों ने कितनी उन्नति कर ली थी, इसका वर्णन डाक्टर प्रफुल्लचन्द्र राय ने अपने ग्रन्थ में बहुत अच्छा किया है। उनके बताये हुये पारे के भिन्न-भिन्न उपयोग तो बहुत ही प्रशंसनीय हैं। प्राचीन भारतवासी भौतिक शास्त्र (Physics) में भी पीछे न थे। वैशेषिक-दर्शन और कारिकावलि अथवा शाखापरिच्छेद पढ़ते ही यह बात ध्यान में आ जाती है। उनमें अध्यात्म-विद्या का उतना विचार नहीं किया गया जितना पदार्थ विज्ञान का, वैशेषिक दर्शन का परमाणुवाद इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमारे पूर्वज पदार्थ-विज्ञान की उन कितनी ही शाखाओं पर विचार कर चुके थे, जिनमें इतने समय बाद योरोप ने अब कहीं विशेष उन्नति की है।

चन्द्रकीर्ति नाम के एक लेखक ने आर्यदेव के लिखे हुए चतुःशतिका नामक ग्रन्थ पर एक टीका लिखी है। आर्यदेव तीसरी सदी में और चन्द्रकीर्ति छठी सदी में हुये थे। उसमें दो कथायें हैं। उनको