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साहित्य-सीकर

पढ़ने से ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में आर्यों ने यंत्र निर्माण में भी यथेष्ट प्रवीणता प्राप्त कर ली थी।

कला-कौशल

हमारे यहाँ चौसठ कलायें मानी जाती हैं। चौसठ कलाओं की कई नामावलियाँ मेरे देखने में आई हैं। पाञ्चालिकी एक नामावली है। एक और का नाम है मूल कला। वस्तु-कला, द्यूत-कला, शयन-कला आदि, इसके कितने ही भाग हैं। एक नामावली और भी है। उसका नाम है औपायिकी-कला। उसका टीकाकार कहता है कि कुल कलायें ५१८ हैं। खेद है, उनके नाम उसने नहीं गिनाये। मैं समझता हूँ, सभी औपायिकी-कलाओं पर पुस्तकें लिखी गई होंगी। कितनी ही औपायिकी कलाओं पर पुस्तकें मिलती भी हैं। उन्हें सब लोग जानते हैं। संगीत ही का उदाहरण लीजिये। उस पर कितनी ही पुस्तके हैं। बंगाल-निवासी भुदानन्द कविकण्ठाभरण ने हिन्दुओं के अठारहों शास्त्र पर टीकायें लिखी हैं। वे शेरशाह के समकालीन थे। उन्होंने संगीत-विद्या पर भी एक पुस्तक लिखी है। उसमें उन्होंने संगीत-शास्त्र पर पुस्तक-रचना करने वाले कितने ही प्राचीन लेखकों के नाम दिये हैं। कोहल ने अपने नाट्य-शास्त्र में अकेले नृत्य पर कितने ही अध्याय लिख डाले हैं। उनमें करण, अंगहार, नर्त्य आदि का विवेचन किया गया है। दशरूपक नामक ग्रन्थ में भी नर्त्य और नृत्य का भेद दिखाया गया है। कोहल ने, मेरे खयाल से, नाट्य-शास्त्र की रचना दूसरी शताब्दी में की। उसने नाट्य-शास्त्र के सभी अङ्गों और उपांगों का सविस्तार विवेचन किया है।

हाँ, चित्रकला पर अभी तक कोई पुस्तक नहीं मिली। पर ईसा के पूर्व दूसरी सदी की चित्रकारी के नमूने अलबत्ते मिले हैं। छठीं से