सन्तति। हबड़ा के पास सलकिया में आप रहते थे। किसी से कुछ सरोबार न रखते थे। सब से अलग रहते थे इसी से आपको जाति या समाज के बहिष्कार का डर न था। पण्डित महाशय वैद्य-विद्या भी जानते थे। पास-पड़ोस के लोग चिकित्सा कराने आपको अक्सर बुलाते थे। कभी-कभी इनके रोगी अच्छे भी हो जाते थे। इससे इन्होंने अपने मन में कहा कि यदि हम इस यवन को संस्कृत पढ़ायेंगे तो भी हमारे टोले महल्ले के लोग हमें न छोड़ सकेंगे। जब कोई बीमार होगा, लाचार होकर उन्हें हमी को बुलाना पड़ेगा। क्योंकि और कोई वैद्य यहाँ है ही नहीं। इसी से इन्हें सर विलियम जोन्स को पढ़ाने का साहस हुआ। एक तो १००) महीने तनख्वाह, फिर सलकिया से चौधी तल रोज आने-जाने के लिए मुफ़्त में पालकी की सवारी। याद रहे उस समय पालकी की सवारी के लिए महीने में ३०) रुपये से कम न खर्च होते थे अतएव अपना सब तरह से फायदा समझकर समलोचन ने सर विलियम के पढ़ाने का निश्चय किया।
कविभूषणजी ने सर विलियम जोन्स के साथ बड़ी-बड़ी शर्तें कीं। पर सर विलियम इतने उदार हृदय थे कि उन्होंने सब शर्तों को मंजूर कर लिया। उनके बँगले के नीचे के खंड का एक कमरा पढ़ाने के लिये पसंद किया गया, उसके फर्श में संगमरमर बिछवाया गया। एक हिंदू नौकर रखा गया। उसके सिपुर्द यह काम हुआ कि वह रोज हुगली से जल लाकर कमरे के फर्श को, और थोड़ी दूर तक दीवारों को भी धोवे। दो-चार लकड़ी की कुरसियों और एक लकड़ी के मेज के सिवा और सब चीजें उस कमरे से हटा दी गईं। ये चीजें भी रोज धोई जाने लगीं। शिक्षा दान के लिये सबेरे की बेला नियत हुई। पढ़ने के कमरे में कदम रखने के पहले सर विलियम को हुक्म हुआ कि एक प्याला चाय के सिवा न कुछ खायें न पियें। यह भी