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साहित्य-सीकर

उन्हें मंजूर करना पड़ा। कवि भूषणजी की यह आज्ञा हुई कि गो-मांस, वृष-मांस, शूकर-मांस मकान के अन्दर न जाने पावे। यह बात भी कबूल हुई। एक कमरा पंडितजी को कपड़े पहनने के लिए दिया गया। उसके भी रोज धोये जाने की योजना हुई। पंडित महाशय ने दो जोड़े कपड़े रखे। उनमें से एक जोड़ा इस कमरे में रक्खा गया। रोज प्रातःकाल जिस कपड़े को पहन कर आप साहब के यहाँ आते थे उसे इस कमरे में रख देते थे और कमरे में रक्खा हुआ जोड़ा पहन कर आप पढ़ाते थे। चलते समय फिर उसे बदलकर घर वाला जोड़ा पहन लेते थे।

इतने महाभारत के बाद सर विलियम ने "रामः, रामौ, रामाः" शुरू किया। न सर विलियम संस्कृत जानें, न कविभूषण महाशय अँगरेजी। पाठ कैसे चले? खैर इतनी थी कि साहब थोड़ी सी टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेते थे। उसी की मदद से पाठारम्भ हुआ। दोनों ने उसी की शरण ली। सौभाग्य से अध्यापक और अध्येता दोनों बुद्धि-मान थे। नहीं तो उतनी थोड़ी हिन्दी में कभी न काम चलता। सर विलियम ने बड़ी मिहनत की। एक ही वर्ष में वह सरल संस्कृत में अपना आशय प्रकट कर लेने लगे। संस्कृत में लिंगभेद और क्रियाओं में रूप बड़े मुश्किल हैं। बहुत सम्भव है, पहले पहल सर विलियम ने बहुत सी संज्ञाओं और क्रियाओं के रूप कागज पर लिख लिये होंगे। उनकी तालिकायें बना ली होंगी। उन्हीं की मदद से उन्होंने आगे का काम निकाला हो। किस तरह उन्होंने पंडित रामलोचन से संस्कृत सीखी, कहीं लिखा हुआ नहीं मिलता। यदि उनकी पाठ-ग्रहण-प्रणाली मालूम हो जाती तो उसे जानकर जरूर कुतूहल होता।

एक दिन सर विलियम जोन्स पंडित महाशय से बातचीत कर रहे थे। बातों-बातों में नाटक का जिक्र आया। आपको मालूम हुआ कि संस्कृत में भी नाटक के ग्रन्थ हैं। उस समय भी कलकत्ते में अमीर