हिन्दुस्तान में हजारों लोग ऐसे हैं जिन्होंने अंगरेजी जैसी क्लिष्ट और विदेशी भाषा में बड़े-बड़े गहन ग्रन्थ लिखे हैं, जो अंगरेजी के प्रतिष्ठित पत्रों और सामयिक पुस्तकों का बड़ी ही योग्यता से सम्पादन करते हैं, जो अंगरेजी में धारा प्रवाह वक्तृता देते हैं और जिन्हें अंगरेजी भाषा मातृ भाषा ही सी हो रही है। कितने ही भारतवासियों की लिखी हुई अंगरेज़ी पुस्तकें विलायत तक के पुस्तक प्रकाशक बड़े ही आग्रह और उत्साह से प्रकाशित करते हैं और लेखकों को हज़ारों रुपया पुरस्कार भी देते हैं। इस देश के कितने ही वक्ताओं की मनोमोहनी और अविश्रान्त वाग्धारा के प्रवाह ठेठ विलायत की भूमि पर भी सैकड़ों-हज़ारों दफे बहे हैं और अब भी, समय समय पर, बहा करते हैं। हम लोगों की अंगरेज़ी को "बाबू इंगलिश" कह कर घृणा प्रकाशित करने वालों की आँखों के सामने ही ये सब दृश्य हुआ करते हैं। परन्तु आज तक इंगलिस्तान वालों में से ऐसे कितने विद्वान् हुये हैं जिन्होंने हमारी हिन्दी या संस्कृत भाषा में पुस्तकें लिखी हों, अथवा इन भाषाओं में कभी वैसी वक्तृता दी हो जैसी कि बाबू सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी या पंडित मदन-मोहन मालवीय देते हैं। ढूँढने से शायद दो ही चार विद्वान ऐसे मिले होंगे। विलायत वाले चाहे संस्कृत में कितने ही व्युत्पन्न क्यों न हों
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