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साहित्य-सीकर

की नहीं। संस्कृत का अनुकरण करने से काम न चलेगा। संस्कृत में तो नियम के भीतर नियम और अपवाद के भीतर अपवाद हैं। वह तो विचित्रताओं की खान है। संस्कृत के आप पीछे पड़ेंगे तो, 'दाराः' शब्द से उल्लिखित होने पर, आपकी पत्नी आपका स्त्रीत्व खोकर पुरुस्तव को प्राप्त हो जायगी; इसके सिवा एक होने पर भी उसे अनेकत्व प्राप्त हो जायगा; और, आपके सुहृद सखाराम 'मित्र' बनकर पुरुस्त्व से हाथ धो बैठेंगे।

ग॰—यह तो लिंग और वचन के भेद की बात हुई। क्रियापदों में तो यह बात नहीं होती। उनके रूपान्तरों में धातु या क्रियापद-गत वर्णों को छोड़कर अन्य वर्ण नहीं आ जाते।

दे॰—आप अनधिकार चर्चा कर रहे हैं। संस्कृत में जो कुछ होता है उसका यदि शतांश भी हिन्दी में होने लगे तो आप घड़ी भर में पिड़ी बोल जायँ और हाथ से कलम रख दें। संस्कृत में एक धातु है—इ। उसके एक प्रकार के भूतकालिक क्रियापद होते है—इयाम, ईयतुः, ईयुः। अब देखिये इनमें कितने नये नये वर्ण आ गये। 'व्यपेयाताम्' भी इसी धातु का एक उपसर्ग-विशिष्ट रूप है। इसमें तो मूल धातु—इ—का कहीं पता तक नहीं। 'दिया' का बहुवचन यदि किसी ने 'दिए' लिख दिया तो आपके पेट में दर्द होने लगता है, 'इयाय' का बहुवचन 'ईयुः' देखकर नहीं मालूम आपको कौन ब्याधि आ घेरेगी।

ग॰—कुछ भी हो, इस प्रकार की विषमता से हिन्दी को बचाना ही अच्छा है। हिन्दी को हम लोग राष्ट्र-भाषा बनाना चाहते हैं। उसकी क्लिष्टता दूर करने के लिए उसके हिज्जों में समता होनी चाहिए। तभी अन्य-प्रान्त वाले उसे सीखेंगे।