दे॰—अँगरेज़ी और संस्कृत को भी आप किसी लायक समझते हैं या नहीं? उनकी एकरूपता या विषमता पर भी कभी विचार किया है? अँगरेजी तो विषमताओं और विलक्षणताओं की खानि ही है? संस्कृत में भी इन गुणों या दोषों की कमी नहीं। उसके अनेक शब्द ऐसे हैं जिन्हें, विभक्तियों के पेंच में पड़कर, दो ही दो नहीं, तीन-तीन तक रूपान्तर धारण करने पड़ते हैं। तिस पर भी हजारों साल से लोग उसे सीखते आते हैं। अनन्त ग्रन्थ राशि उसमें तैयार हो चुकी है। उसका अधिकांश नष्ट हो जाने पर भी, लाखों ग्रन्थ अब तक मौजूद हैं। हिज्जों की विषमता ने उसकी साहित्य-वृद्धि में बाधा नहीं डाली। फिर आप हिन्दी की इस तुच्छ विषमता से क्यों इतना भयभीत हो रहे हैं? संस्कृत देववाणी कहाती है। उसका संस्कार बड़े-बड़े ऋषियों और मुनियों ने किया है। उसको आप हिन्दी की जननी कहने में तो गर्व करते हैं, पर उसकी विषमता स्वीकार करते घबराते हैं। 'कोश' और 'कोष', 'बैय्याकरण' और 'वैयाकरण', 'शारदा' और 'सारदा' आदि शब्दों के दो-दो रूप होने से संस्कृत को कितनी हानि पहुँची है? कभी इस बात को भी आपने सोचा है? 'दिया', 'किया', 'लिया' आदि के रूप, बहुवचन में, यदि कोई 'दिये', 'किए', 'लिए' ही लिखे तो क्या इतनी ही द्विरूपता से हिन्दी की सारी उन्नति रुक जायगी और उसमें अनन्त क्लिष्टता आ जायगी? जो भारतवासी बीस-बीस साल तक कठिन परिश्रम करके अँगरेजी और संस्कृत के सदृश महाजटिल और क्लिष्ट भाषाओं के आचार्य हो जाते हैं वे दस-पाँच शब्दों की द्विरूपता देखकर ही हिन्दी से डर जायँगे, इस बात को आप अपने ध्यान तक में न लाइए।
ग॰—हिन्दी की उन्नति रुके या न रुके, बात यह है कि यदि सब लोग