मिल कर किसी शब्द का कोई एक रूप निश्चित कर लें तो क्यों व्यर्थ में उसके दो रूप रहें।
दे॰—सब लोग? सौ, दो सौ, हजार, लाख? आखिर कितने? सारे हिन्दी-भाषा-भाषियों को तो आप अपने नियम से जकड़ सकेंगे नहीं आपके अखबारों और पुस्तकों की पहुँच होगी कहाँ तक और आपके नियम का पालन करेंगे कितने लोग? लाखों बच्चे मदरसों में शिक्षा पा रहे हैं। क्या उन सब से आप जबरदस्ती नियम का पालन करावेंगे? भाई साहब, नियम बना कर भाषा का प्रतिबन्ध नहीं किया जा सकता। भाषा का रुख और उसके प्रत्येक अंग के भेद-भाव देखकर तदनुकूल नियमों और व्याकरणों की रचना की जाती है। भाषा कुछ आपके नियमों की अनुचरी नहीं। व्याकरण अलबत्ते उसका अनुचर है। लेखकों की प्रवृत्ति, भाषा का प्राकृतिक झुकाव और रिवाज आदि उसे जिस तरफ ले जाते हैं उसी तरह वह जाती है। व्याकरण की गरज हो तो उसके पीछे-पीछे जाय और नियम बनावे। संस्कृत-व्याकरण के प्रणेताओं को तो एक-एक शब्द के लिये भी अलग-अलग नियम बनाने पड़े हैं। यदि 'दिया' का बहुवचन 'दिए' लिखने का रवाज हो जाय, अथवा कुछ लेखक उसे इसी रूप में लिखें तो व्याकरण बेचारे को झखमार ऐसे रूपों की घोषणा करनी ही पड़ेगी।
ग॰—आप तो हठ कर रहे हैं। 'दिये', 'लिये', 'किये' आदि लिखने में आपकी हानि ही कौन सी है? आप यदि इन रूपों को इसी तरह लिखा करें तो आपकी देखा देखी और भी ऐसा ही करने लगेंगे। फल यह होगा कि इनके रूपों में समानता आ जायगी।
दे॰—आप मेरी बात न कहिये। समुदाय की बात कहिए। मेरी तेरी का भाव अच्छा नहीं। मैं क्या लिखता हूँ और कैसे लिखता