पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/२५

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सितार मालिका इससे अगला तार लरज का होने के कारण, जो अति-मन्द्र-षड्ज में मिला हुआ है, उस पर दबा कर म ग और रे बजा लिये । जब इसे भी खुला बजाया तो अति-मन्द्र-सप्तक का सा बोलने लगा। इस प्रकार इस ढंग से सितार मिलाने पर हमें 'अति-मन्द्र-सप्तक' 'मन्द्र-सप्तक' 'मध्य-सप्तक' पूरे-पूरे और तार-सप्तक के गान्धार पर खींचकर 'तार-सप्तक' के पञ्चम तक प्राप्त हो गये । इस प्रकार जब साढे तीन सप्तक सितार में बजने लगे तो वीणा का पूरा काम इसमें आगया। वीणाकार की जीत अति-मन्द्र सप्तक में ही विशेष थी, परन्तु इस पद्धति ने सितार को वीणा से भी उत्तम बना दिया। सितार के परदे-- पुराने लोगों ने सितार में केवल सोलह ही परदे रखे थे। जिनका क्रम खूटियों की ओर से म प ध नि नि सा रे ग म म प ध नि सां रै गं था । इसके बाद लोगों को मन्द्र सप्तक में कोमल धैवत की और आवश्यकता प्रतीत हुई। अतः कुछ काल तक सोलह के स्थान पर सत्तरह परदे बँधते रहे। कालान्तर में कोमल गांधार भी बँधने लगा, फलस्वरूप अठारह परदे होगये। अब सरलता की दृष्टि से मध्य सप्तक का कोमल निषाद भी बांधा गया और यह संख्या उन्नीस परदों तक पहुँची। कुछ लोगों ने मध्य-सप्तक के कोमल धैवत को भी बांध लिया और परदों की संख्या बीस कर दी। यहां तक कि सिनेमा संगीत के वादकों ने कोमल ऋषभ भी बांध लिया और इस संख्या को इक्कीस कर दिया। आज आपको ५% सोलह परदों के, २०% सत्तरह परदों के, ८०% उन्नीस परदों के और १% या २% इक्कीस परदों के सितार दिखाई देंगे। मेरी समझ से सत्तरह परदों का सितार ठीक और उन्नीस परदों का सबसे उत्तम है। जिस प्रकार सितार की तरखें उसकी ध्वनि को कुछ अंश में बढ़ा देती हैं अथवा ऊपर की ओर दूसरा तूंबा लग जाने से ध्वनि में जो सूक्ष्म परिवर्तन होता है, वैसे ही, परदों की संख्या अधिक होने सितार की ध्वनि में भी सूक्ष्म कमी आ जाती है । कारण कि उत्तम ध्वनि तभी उत्पन्न होती है जब कि सितार में हल्कापन हो। जितना हल्का सितार होगा स्वर के आन्दोलन उतनी ही देर तक स्थिर रह सकेंगे। इसके विपरीत सितार को जितना भारी कर दिया जायेगा, ध्वनि उतनी ही 'ठस' होती चली जायेगी। अतः परदों की संख्या अधिक बढ़ा देने से सितार 'भारी' होता चला जायेगा और ध्वनि 'स'।