पृष्ठ:सितार-मालिका.pdf/२५९

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७०--वैरागी

भैरव ठाठ का यह राग अत्यन्त मनोहर है और इसके रचयिता तथा प्रचार में लाने वाले पं० रविशंकर जी है। इसमें मारवा के समान वैराग्य भाव रक्षित होता है। जाति औडुव-औडुव है। और वादी निपाद तथा सम्वादी मध्यम है। गांधार और धैवत इस राग में वर्जित है। गायन समय प्रात :काल है। रिपभ

इसमें अति कोमल है जैसे कि राग जोगिया में लगता है। इसमें भीड़ और गया के विशेष सुयोग रहते हैं तथा निपाद पर कुछ बल दिया जाता है। आरोही:– सा ये मैगनेटिक पर नि सां तथा अवरोही:- सां निं प म रे सा है। मुख्याङ्ग:- प नि ष नि रे सा रे में रेऽ नि सा र  में पहले ऽ निम रे सा है। 

अलाप- सा रे‌ नि सा रे नि प नि रे सा पा नि सा प नि रे ऽ सा। नि सा रे ऽ म प में रेऽ

ताने- १-र म प म रे सा नि सा सा ये मै पर मैं प म रे म प म रे सा रे सा रे नि सा नि रे सा सा रे म म रे सा नि ये म प म रे म प रे रे म प नि प म प म रे म रे सा।

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३-सा रे म प नि नि सा सा रे नि प नि रे प म नि प म नि प म प नि प म रे नि सा रे म प म रे नि प नि प रे,म रे ऽपम नि प म प नि प म रे नि सा रे म प म रे नि प नि प रे म रे ऽसा; सां निं हां नि प नि ऽनि नि हां लें मनचाहा पन मं रे ऽसा रे