पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१२२

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सिद्धान्त और अध्ययन ८४. . कुछ प्राचार्यों ने सौन्दर्य की व्याख्या में उपयोगिता को महत्त्व दिया है। उनके मत से उपयोगिता पर ही सौन्दर्य आश्रित है। हर्बर्ट स्पेन्सर इसी मत के थे । कालिदास ने दिलीप के सौन्दर्य का जो वर्णन किया है उसमें 'न्यूडोरस्को वृषस्कन्धः शालप्रांशुमहाभुजः' ( रघुवंश, १।१३ ) ( अर्थात् चौड़ी छाती, बैल-के-से कंधे और शाल वृक्ष-की-सी लम्बी बाहें ) के गुण दिये हैं। वे वास्तव में क्षात्र धर्म के अनुकूल और उपयोगी हैं, तभी तो श्लोक की दूसरी-पंक्ति में वे कहते हैं :- 'श्रात्मकर्मक्षम देह क्षात्री धर्म इवाश्रितः --रघुवंश (१११३) .. अर्थात् अपने रक्षा-कार्य के योग्य शरीर को समझकर क्षात्र धर्म ने वहाँ आश्रय लिया है । यह पुरुष-सौन्दर्य का वर्णन है यहाँ उपयोगिता का भाव लग जाता है किन्तु सब जगह नहीं। हर जगह उपयोगिता काम नहीं देती। यद्यपि हम सौन्दर्य में सुकुमारता ( गुलाब के फूल के झामे से एड़ी को घिसने पर एड़ी लाल हो जाने वाली सुकुमारता) के पक्ष में अधिक नहीं है फिर भी उसका मूल्य है। सौन्दर्य ही स्वयं उसकी उपयोगिता है । - सौन्दर्य की जो वस्तु अपने लक्ष्य या कार्य के अनुकूल हो वही सुन्दर है । 'सुधा सराहिल अमरता गरल सराहिन मीचु' (रामचरितमानस, बालकाण्ड)-- यह भी उपयोगिता का ही रूप है । क्रोचे ने अभिव्यक्ति को ही वाला या सौन्दर्य माना है । वह सफल विशेषण भी नहीं जोड़ना चाहता क्योंकि असफल अभि- व्यक्ति, अभिव्यक्ति नहीं है। यह परिभाषा कलाकृतियों पर ही अधिक लागू होती है। इन परिभाषानों से हम इस तथ्य पर आये हैं कि सौन्दर्य का गुण किसी अंश में वस्तुगत है और उसका निर्णय तद्गत गुणों, रेखाओं आदि के सामञ्जस्य पर निर्भर है। इन गुणों, रूपों आदि का जितना सामञ्जस्यपूर्ण बाहुल्यं होगा उतनी वह वस्तु सुन्दर होगी ( क्रोचे ने सौन्दर्य में श्रेणी-भेद नहीं माना है, वह असुन्दर की ही श्रेणियाँ मानता है ), उसकी विषयगतता ही लोकरुचि का निर्माण करती है । वैयक्तिक रुचि यदि विरुद्ध हो तो उसकी सराहना नहीं की जाती :- 'सीतलताऽरु सुबास को, घटै न महिमा-मूरु । पीनस वारे जी तन्यो, सोरा जानि कपूरु ।' -बिहारी-रत्नाकर ( दोहा ५६ ) - इसी के साथ सौन्दर्य का विषयीगत पक्ष भी है जिसके कारण उसकी ग्राह- कता आती है । सौन्दर्य का प्रभाव भी विषयी पर ही पड़ता है, इसीलिए उसकी