काव्य के वयं-चरित्र-चित्रण की प्रवृत्ति उसमें अन्य नौकरानियों-की-सी ही है किन्तु इन दो प्रवृत्तियों की साधना का प्रकार सबमें एक-सा नहीं होता है। इसीमें व्यक्ति की विशेषता आजाती है। हमारे यहाँ उपन्यासों में प्रेमचन्दजी के पात्र सामान्य की ओर अधिक झुके रहते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि उनमें व्यक्तित्व नहीं है कुछ का तो व्यक्तित्व बड़ा स्पष्ट है, जैसे 'कर्मभूमि' में सलीम का। वह अपने कक्ष के मैजिस्ट्रेटों से भिन्न है किन्तु वैसे लोग भी जीवन में मिल जाते है। जैनेन्द्र जी तथा इलाचन्द जोशी के पात्र साधारण से हटे हुए होते हैं। कुछ तो इतने हटे होते हैं (जैसे जैनेन्द्र जी. के हरिप्रसन्न और सुनीता) कि विक्षिप्तता की कोटि को पहुंच जाते हैं। इलाचन्द्र जोशी के 'प्रत और छाया' का नायक मानसिक विकृतियों का शिकार होने के कारण साधारण से हटा हुआ है। पात्र जितना पेचीदा होता है उतनी ही उसके मनोवैज्ञानिक अध्ययन की आव- श्यकता होती है, शेखर ऐसा ही पात्र है। कुछ पात्रों में एक गुण ऐसा होता है जो साधारण से विलक्षण होता है। वही उनके चरित्र की कुञ्जी होती है और उसी के कारण वे सदा याद रहते हैं, जैसे स्कन्दगुप्त की देवसेना अपने समय कुसमय के सङ्गीत-प्रेम के लिए सदा याद रहेगी। चरित्र-चित्रण महाकाव्य, खण्डकाव्य, कथात्मक मुक्तक, नाटक, उपन्यास, कहानी सभी में थोड़ी-बहुत मात्रा में होता है किन्तु सबमें अलग-अलग प्रकार से । महाकाव्य में वैयक्तिक गुण तो रहते हैं किन्तु वे जाति के सामान्य गुणों की छायारूप होते हैं । नाटक, उपन्यास, कहानी आदि में व्यक्तित्व की मात्रा अधिक रहती है । उपन्यास में विश्लेषात्मक ( जिसमें लेखक स्वयं चरित्र का विश्लेषण कर देता है ) के अतिरिक्त अभिनयात्मक पद्धति के चरित्र-चित्रण की ( जिसमें पात्र स्वयं अपने बारे में कहता है या दूसरे उसके बारे में अपनी राय जाहिर करते हैं अथवा उसके कार्यों द्वारा चरित्र पर प्रकाश पड़ता है ) गुञ्चा- इश रहती है । नाटक में केवल अभिनयात्मक पद्धति से ही काम लिया जाता है । एकाकियों और कहानियों में चरित्र का विकास तो दिखाने की गुञ्चाइश नहीं होती किन्तु उनमें प्रायः बने-बनाये चरित्र पर एक साथ प्रकाश डाला जाता है या यदि परिवर्तन होता है तो एक साथ होता है, जैसा कि डाक्टर रामकुमार वर्मा के 'रेशमी टाई' या 'अट्ठारह जुलाई की शाम' में अथवा प्रेम. चन्दजी को 'शंखनाथ' अथवा कौशिकजी की 'ताई' नाम की कहानी में। हमारे देश के प्राचीन काव्य और नाटकों में पात्र आदर्श की ओर अधिक झुके हुए थे किन्तु उनमें व्यक्तित्व की कमी न थी, हाँ उनमें विकास और परिवर्तन
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