काव्य के वर्ण्य-प्राकृतिक दृश्य ' स उनका कथन है कि संस्कृत के कवियों ने प्रकृति के पालम्बनरूप से वर्णन की ओर अधिक ध्यान दिया है किन्तु वास्तविक बात यह है कि उसका चित्रण भी मानव-प्रसङ्ग में ही हुआ है । प्रकृति के स्वयं उसके लिए वर्णन बहुत कम हैं। 'अस्युत्तरस्यां दिशि देवतास्मता हिमालयो नाम नगाधिराज' (कुमारसम्भव, १।१) से प्रारम्भ होने वाला कालिदास के 'कुमारसम्भव' में दिया हुआ हिमालय का वर्णन बड़ा विशद और सूक्ष्म है किन्तु अठारहवें ही श्लोक पर जाकर हिमालय को मानवी रूप दे दिया जाता है और उसकी मेना से शादी करादी जाती है :---- 'मेनां मुनीनामपि माननीयामात्मानुरूपां विधिनोपयेमे ।' —(कुमारसम्भव १।१।१८) शायद इसीलिये प्राचार्य शुक्लजी ने भी इस बात से संतोष कर लिया कि जहाँ संश्लिष्ट वर्णन हो वहाँ पालम्बनत्व मान लेना चाहिए । प्रकृति के पालम्ब- नत्व-धर्म का पालन आजकल के छायावाद-युग में पर्याप्त रूप से हुआ है। पंतजी से एक उदाहरण नीचे दिये जाता है :- 'उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध, फूली सरसों पीली-पीली। . लो, हरित धरा से झाँक रही, नीलम की कलि, तीली नीली ।।' -अाधुनिक कवि : २ (ग्राम-श्री, पृष्ठ १३) ऐसे अधिकांश वर्णनों में प्रकृति का मानवीकरण भी स्वाभाविक रूप से हो जाता है । उदाहरण के लिये नीचे का वर्णन देखिए :- 'अम्बर पनघट में डुबो रही--- तारा-घट ऊषा गागरी' -लहर (पृष्ठ १६ ) प्रकृति के मानवीकरण की इसलिए और आवश्यकता पड़ जाती है कि जो हमारे भावों की पालम्बन बनेगी उसमें स्वयं हमारे भावों की झलक न हो तो प्रेम की एकाङ्गिता एक दूषित रूप में प्रकट होने लगती है। प्रकृति के प्रति प्रेम को सार्थकता देने के लिए दो ही बातें हो सकती हैं या तो उसको मानवी रूप में देखा जाय या उसका चेतन आधार परमात्मा में माना जाय । ये दोनों बातें हमको पन्त और प्रसाद के प्राकृतिक वर्णनों में मिलती हैं । उद्दीपनरूप से वर्णन के लिए यह बात जरूरी नहीं है कि उसका चेतन प्राधार माना जाय । प्रकृति से उपदेश-ग्रहण करने की जो प्रवृति है, जैसे तुलसीदासभी के वर्षा-वर्णन में है, अथवा कुछ-कुछ अन्योक्तियों में मिलती है, वह भी प्रकृति को मानव-सम्बन्ध में देखना है। यही वैज्ञानिक और साहित्यिक दृष्टिकोण में अन्तर है । वैज्ञानिक
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