सिद्धान्त और अध्ययन मनुष्य को भी प्रकृति के धरातल पर घसीट लाता है और साहित्यिक प्रकृति को भी मानव के समकक्ष बना लेता है । ___ यद्यपि प्राचीन कवियों ने प्रकृति का वर्णन पालम्बनरूप रो कम किया है तथापि उन्होंने मानव-व्यापारों में प्रकृति का सहचार पूर्णरूपेण स्वीकार किया है । चन्द्र-ज्योत्स्ना और मलय-समीर रास-रस में और भी मिठारा उत्पन्न कर देते हैं । इसीलिए तो नन्ददासजी ने अपनी 'रासपंचाध्यायी' में चन्द्रमा को रस- रास सहायक कहा है :-- 'ताही छिन उड़राज उदित, रस-रास-सहाइक । कुकुम-मंडित प्रिया-बदन, जनु नागर-माइक ॥ कौंमल-किरन-अरुन नभ, बन मैं ब्यापि रही यौं। मनसिज खेल्यौ फागु, घुमरि घुरि रह्यौ गुलाल ज्यौं ।' रासपंचाध्यायी (१॥५१, ५२) वर्षा और वसन्त विरहिणियों की विरह-वेदना को तीव्रता प्रदान करते हैं। यहाँ तक तो बात मनोविज्ञान के अनुकूल रहती है । सम्बन्ध-ज्ञान से प्राकु- तिक दृश्य स्मृति को जाग्रत कर विरह पर सान चढ़ा देते हैं :-.. 'बिन गुपाल बैरिन भई कुजे।। तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुजै॥' --भ्रमरगीतसार (पृष्ठ ३७) कृष्ण के मथुरा चले जाने पर सूर की गोपियाँ मधुवन से पूछती है- 'मधुपन तुम कत रहत हरे'-यहां तक भी कुशल है, जायसी ने तो सारी प्रकृति को विरह से व्याप्त दिखलाया है। तालाब की मिट्टी की दरारें और गैहूँ का बीच में से फटा हुआ होना विरह के कारण ही बतलाया है। इसकी यही व्याख्या हो सकती है कि कवि विरह-वर्णन में इतना तन्मय हो गया है कि उसको चारों ओर विरह-ही-विरह दिखाई देता है । ऐसी बात कवि की अपेक्षा विरह-पात्र के मुख से कहलाने में अधिक स्वाभाविकता रहती है। प्रकृति में संवेदना देखने को रस्किन में संवेदना का हेत्वाभास (Pathotic fallacy) कहा है। कालिदास ने मेघदूत में विरही यक्ष के द्वारा मेध से संवेदना की याचना कराई है किन्तु उन्होंने स्वयं इस बात के अनौचित्य का अनुभव किया है और कहा है कि कामी लोग चेतन और अचेतन का अन्तर नहीं करते 'कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतने' (इस बात का श्रीकन्हैयालाल सहल ने अपनी 'समीक्षाञ्जलि' में संवेदना के हेत्वाभास शीर्षक लेख में अच्छा विवेचन किया है) । वैसे एकात्मवाद के आधार पर जड़ और चेतन में काम
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