काध्य के घपर्य-भाव और विचार १०१ है.---'यस्किमिचल्लोके शुचिमेध्यमुज्वल' दर्शनीयं वा तच्छ झारेणोपमीयते' ( नाव्यशास्त्रचौखम्बा सीरीज, अध्याय ६)जो कुछ पवित्र है, दर्शनीय है उसकी शृङ्गार से उपमा दी जा सकती है । यद्यपि शृङ्गार के दोनों ही पक्ष हैं तथापि वियोगशृङ्गार को अधिक महत्ता दी जाती है । सूरदासजी ने कहा है :- 'ऊधी! बिरही प्रेम करें। ज्यों बिनु पुट पट गहै न रंगहि, पुट गहे रसहि परै ॥ जो भाँबौं घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै। -~~-भ्रमरगीतसार (पृष्ठ ७०) फिर भी संयोग भी अपनी महत्ता रखता है। उसमें ब्रह्मानन्द तो नहीं लेकिन उनका सादृश्य अवश्य प्राजाता है। उसमें मनोनुकूल उच्चतम अनुभव प्राजाता है, तभी तो रहस्यवादी उसको ईश्वरोन्मुख प्रेम के रहस्यानुभव का उपमान बताते रहे हैं । कबीर से लगाकर, कबीर ही से क्या, उपनिषदों तक से रहस्य- वाद में शृङ्गारिक भाषा का प्रयोग हुआ है । उसमें प्रेम-पान के अतिरिक्त और कोई पार्थिव मूल्य नहीं रहते । रवि बाबू ईश्वर-मिलन में अलङ्कारों को भी बाधक मानते हैं. पीर कहते हैं कि उनकी झङ्कार में प्रियतम का मन्द-मधुर स्वर नहीं सुनाई पड़ता है :--- 'तोमार काछे राखे नि भार साजेर अलङ्कार। ... अलङ्कार जे माझे पड़े मिलते ते प्राडाल करे, तोमार कथा ठाके जे तार प्रखर झङ्कार ।' -गीताञ्जलि (गीत ७) सूर ने शृङ्गार की नीची-से-नीची और ऊँची-से-ऊँची दशाओं का वर्णन किया है। उन्होंने रति की अंकुरस्वरूपा प्रारम्भिक आकर्षणमयी जिज्ञासा का बहुत ही मनोरम वर्णन किया है। प्राचार्य शुक्लजी की भ्रमरगीतसार की भूमिका से उन उद्धरणों को यहाँ अवतरित.. करने का मोह संवरण नहीं कर सकता:---- (क) 'खेलन हरि निकले बज-खोरी। गए स्याम रबि-तनया के तट, अंग लसति चंदन की खोरी ॥ औचक ही देखी सह राधा, नैन बिलाल, भाल दिए रोरी। सूर स्याम देखत ही रीझे, नेन नेन मिलि परी ठगोरी ॥' --भ्रमरगीतसार (भूमिका, पृष्ठ १५) (ख) 'बूझत स्याम, कौन तू, गोरी! "कहाँ रहति, काकी तू बेटी ? देखी नाहिं कहूँ बज-खोरी" ॥
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