पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१८७

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रस और मनोविज्ञान-रस की मैत्री और शत्र ता' बहाँ मनुष्य कोई व्यभिचारी नहीं था, भाव ही व्यभिचारी थे-'भावै जहाँ व्यभिचारी'। ये तैतीस होते हैं। स्थायी भाव दबता नहीं है। सञ्चारी डूबते-उछलते रहते हैं, देखिए साहित्यदर्पणकार क्या कहते हैं :- __'अविरुद्वा विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः । स्थायी भाव प्रास्वादाङ्क रकन्दोऽसौ भावः स्थायीति संमतः ।' -साहित्यदर्पण (३११७४) अविरुद्ध या विरुद्ध भाव जिसको दबाने में असमर्थ रहते हैं, आस्वाद अर्थात् रस-रूपी अंकुर का जो कन्द ( जड़ ) है वह स्थायी भाव कहलाता है। . हमारे यहाँ के प्राचार्यों ने मनोवेगों को टकसाली रुपयों की भाँति बिल्कुल अलग-अलग नहीं माना है। हर-एक स्थायी भाव एक समुद्र के समान है जिसमें सञ्चारी भावों की लहरें-सी उठती रहती हैं--'कल्लोला इव वारिधौ । मनोवेग ( Emotion ) गतिमान संस्थान है । सञ्चारी भाव उसकी गति के पद हैं किन्तु इनके बदलते हुए भी मनोवेग का एक व्यक्तित्व रहता है, वही स्थायी भाव का स्थायित्व है । सञ्चारी भावों के कारण ही कभी-कभी रस की पहचान की जा सकती है, जैसे वीर और रौद्र में पालम्बन और उद्दीपन प्रायः एक होते हैं किन्तु उनके सञ्चारी अलग होते हैं। वीर में धृति ( धैर्य ) और हर्ष होते हैं; रौद्र में मद, उग्रता, चपलता आदि सञ्चारी रहते हैं। . वास्तव में स्थायी भाव और सञ्चारी भाव दोनों ही भाव हैं । यहाँ पर भाव मनोविज्ञान का शुद्ध भाव अभिप्रेत नहीं है वरन् इसका अभिप्राय साहित्य के भाव हैं जो अपनी प्रवृत्यात्मकता के कारण मनोवेगों के व्यापक रूप होते हैं। स्थायी भाव सञ्चारियों की अपेक्षा अधिक स्थायी, व्यापक और हमारी प्रारम्भिक सहज वृत्तियों के अधिक निकट होते हैं। पाश्चात्य मनोविज्ञान का वर्गीकरण मौलिक ( Primary ) और व्युत्पन्न ( Derived.) इससे भिन्न है। स्थायी भाव कब सन्चारी होता है :-हमारे यहाँ के आचार्यों की यह विशेषता रही है कि न तो उन्होंने बाहरी कारणों में विच्छेद-बुद्धि से काम लिया, न मानसिक दशाओं में । बाहरी कारण भी उद्दीपनों से मिलकर एक संश्लिष्ट संस्थान का रूप धारण कर लेते हैं और स्थायी भाव तथा सञ्चारी भाव भी मिलकर एक संस्थान बनते है । मनोवेग चाहे जितना मुख्य क्यों न . हो अमिश्रित होना उसकी हीनता का चिह्न है । परिवर्तन जीवन का लक्षण है। केवल स्थायी भाव ही रहे तो जी ऊब उठे। सौन्दर्य के लिये भी तो नवीनता