सिद्धान्त और अध्ययन या प्रारम्भिक आवश्यकताओं से सीधा नहीं है। स्थायी भावों का सम्बन्ध सीधा आत्मरक्षा से है। नीचे की सूची में रसों के स्थायी भावों का सम्बन्ध सहज प्रवृत्तियों से दिखाया जाता है :- -- १. शृङ्गार का सम्बन्ध प्रजनन ( Pairing) और सामाजिक या एक साथ रहने की प्रवृत्ति (Social and Gregarious Instincts) से है। . २. हास्य का सम्बन्ध हास्य ( Laughter ) से है। -. ३. करुण के स्थायी शोक का सम्बन्ध प्रार्तप्रार्थना ( Appeal ) और अधीनता-स्वीकृति ( Submission ) से है। - ४. रौद्र का सम्बन्ध लड़ाई की प्रवृत्ति ( Instinct of Combet ) ____५. वीर का सम्बन्ध अस्तित्व-स्थापन ( Assertive ) और प्राप्तीच्छा ( Acquisition ) से है। .. .६. भयानक का सम्बन्ध भागने की प्रवृत्ति ( Instinct of Escape ) ७. अद्भुत का सम्बन्ध औत्सुक्य ( Curiosity ) से है। " ८. वीभत्स का सम्बन्ध विकर्षण ( Repulsion ) से है। ६. वात्सल्य का सम्बन्ध सन्तान-स्नेह ( Parental Instinct ) से है। नोट : शान्तरस में कोई प्रवृत्ति नहीं होती, यदि हो सकती है तो अधीनता-स्वीकृति ( Submission ) की प्रवृत्ति । शायद इसीलिए शान्त को नाट्यरसों में नहीं माना है और वात्सल्य को स्वतन्त्र रस माना है । ___ हमने सञ्चारी भावों के विषय में बहुत कम कहा है, किन्तु इनका विशेष महत्त्व है । इनको व्यभिचारी भाव भी कहते हैं। इनकी परिभाषा साहित्यदर्पण में इस प्रकार दी है :- . 'विशेषादाभिमुख्येन चरणाव्यभिचारिणः। संधारी भाव- स्थायिन्युन्मग्ननिमग्नास्त्रयस्त्रिंशय तद्धिदाः ॥' -साहित्यदर्पण (३।१४०) वियोष रूप से अर्थात् मुख्यता के साथ चलने के कारण व्यभिचारी कह.. लाते हैं। ये स्थायी भाव में आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं । स्थायीभाव स्थिर रहता है किन्तु ये पाते और जाते रहते हैं। व्यभिचारी मनुष्य भी व्यभि- चारी इसीलिए कहलाता है कि वह विशेष रूप से प्राता-जाता रहता है या विविध स्थानों में आता-जाता है। व्यभिचारी भाव भी विविध रसों में पाते-जाते हैं । प्राचार्य केशवदासजी ने राम-राज्य में इन्हीं व्यभिचारियों का अस्तित्व माना है।
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