पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१९३

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रस निप्पत्ति-श्रीशङ्क क का अनुमितिवाद रस उसी में सीमित रहेगा और यह लौकिक होगा। उसके द्वारा दुःख से सुख की व्याख्या नहीं हो सकती। रोहिताश्व के मरने पर शैव्या को वास्तविक ही शोक हुया होगा। उस स्थिति में आनन्द कहाँ ? ____२. श्रीशङ्क क का अनुमितिबाद :~-इन आपत्तियों से बचने के लिए श्रीशंकुक ने अपना अनुमितिवाद निकाला । वे नैयायिक थे। उन्होंने रस की निष्पत्ति गम्य-गमक-भाव से मानी है। नट जब नाटकादि में रामादि अनुकार्यों के भावों का ज्ञान प्राप्त कर अपनी शिक्षा और अभिनय के अभ्यास द्वारा रङ्गमञ्च पर कारण (विभाव), कार्य (अनुभाव), सहचारी (सञ्चारी भाव) को अपनी कला में प्रदर्शित करता है तब वे (विभाव, अनुभाव) कृत्रिम होते हुए भी ऐसे नहीं माने जाते और इन नामों से पुकारे भी जाते हैं, अर्थात् नट को रामादि के विभाव कहते हैं और उसके भुजक्षेप, अश्रु आदि अनुभावों को राम के ही अनुभाव कहते हैं-'कृत्रिमैरपि तथान भिमन्यमानेबिभावादिशब्दव्य- पदेश्यैः ' ( काव्यप्रकाश, ४।२८ की वृत्ति में श्रीशङ्ख क के मत से )। उन्हीं विभावादि के संयोग से अर्थात् गम्य-गमक-भाव से अथवा अनुमेयानुमापक-भाव से (विभावादि गमक या अनुमान कराने वाले हैं और रत्यादि स्थायी भाव गम्य है अर्थात् उनका अनुमान किया जाता है) स्थायी भाव का अनुमान किया जाता है (अर्थात् नट के अभिनय को देखकर दर्शक अनुमान करते हैं कि उसमें रति वा क्रोध वा उत्साह है)। यद्यपि रत्यादि भाव अनुमित मात्र हैं और वास्तव में वे नट में होते भी नहीं हैं तथापि वे सामाजिकों की वासना (पूर्वानु- भवजन्य संस्कारों) द्वारा चय॑माण होकर सामाजिकों में रस का रूप धारण कर लेते हैं । यहाँ संयोग का अर्थ गम्य-गमक-भाव है । सामाजिकों के अनुमान का आधार मिथ्या होता है किन्तु वह नितान्त निरर्थक नहीं होता है। उसमें अर्थक्रियाकारित्व (व्यावहारिक उपयोगिता) रहता है । रज्जु के सर्प को देखकर भी भय उत्पन्न हो जाता है और कभी-कभी भयवश मृत्यु भी हो जाती है। कुज्झटिक अर्थात् कुहरे को धुआँ समझकर आग का अनुमान कर लिया जाता है (चाहे पीछे से अनुमाता को अपनी भूल पर लज्जित होना पड़े) । सामाजिक लोग चित्रतुरङ्गन्याय (तसवीर के घोड़े की भाँति जो कागज होते हुए भी घोड़ा कहा जाता है और घोड़ा न होते हुए भी उसके घोड़ेपन से इन्कार नहीं किया जा सकता है) नट को राम, दुष्यन्त आदि मानने लगते हैं। उनकी यह प्रतीति विलक्षण होती है । न तो यह राम को राम-कहने-का-सा 'सम्यक् ज्ञान है, न यह राम को राम न समझकर कृष्ण समझने का-सा मिथ्या ज्ञान है, न 'यह राम है, अथवा राम नहीं-का-सा