पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१९५

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रस-निष्पत्ति-भट्टनायक का भुक्तिवाद अनुकरण हो सकता है, तो वेश-भषा और अनुभावों का। अनुकार्य के अभाव में यह वेश-भूषा और अनुभावों का अनुकरण किसी व्यक्ति- विशेष का नहीं होता है और यदि होता है तो किसी दूसरे समान व्यक्ति का । समुद्रोल्लङ्घन आदि के उत्साह का मानसिक प्रत्यक्ष तो साधारण मनुष्य को हो भी नहीं सकता वास्तव में नट अपनी वेष-भूषा में उस स्थिति के नायक का साधारण रूप धारण करता है (शायद इसी तरह की विचार- धारा भट्टनायक को साधारणीकरण की ओर ले गई हो) अनुकरण का कौशल भी दर्शक अपने अनुभव से ही जांच सकता है। अनुमान के सम्बन्ध में सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि मिथ्या के आधार पर सत्य की प्रतीति नहीं हो सकती । सत्य का तो एक ही रूप होता है, असर के अनेक रूप हो सकते हैं। मिथ्या या भ्रम के आधार का अनुभव अनुभव नहीं कहा जा सकता। चित्रतुरङ्गन्याय से चित्र के घोड़े को घोड़ा अवश्य कहेंगेह किन्तु जब तक हम फिर तीन बरस के बालक न बन जाँय, 'चल रे घोड़े सरपट चाल' कहकर उस पर चढ़ने का साहस न करेंगे। मृग-तृष्णा के जल से कोई स्नान नहीं कर सकता है। दूसरी कठिनाई यह है कि अनुमान बुद्धि का विषय है और व्यवहित (Indirect) होता है। हम धुआँ ही देखते हैं, अग्नि नहीं देखते हैं और य धुआँ भी मिथ्या हो तब तो वास्तविकता से दो श्रेणी पीछे हट जाते हैं। या भाव सीधे प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर व्यञ्जना द्वारा भावना के विषय बनते हैं । सामाजिकों की वासना तो अनुभव को रङ्ग देगी किन्तु अनुमान अनुमान ही रहेगा। इन बातों के अतिरिक्त दो बातों की कठिनाई और है। इस मत से न तो . इस बात की व्याख्या होती है कि दूसरों की रति सामाजिकों को तिरकर प्रकार हो सकती है (सीता आदि पूज्य पात्रों के प्रति सामाजिकों को रति हो ही नहीं सकती) और न इस बात की व्याख्या होती है कि दुःखात्मक अनुभवों (जैसे भय और क्रोध में) भयानक और रौद्र रस की प्रतीति किस प्रकार हो. सकती है, विशेषकर जब रस आनन्दरूप माना गया है। ३. भट्टनायक का भुक्तिवाद :-भट्टनायक का कथन है कि रस की न तो प्रतीति (अनुमिति) होती है (जैसा श्रीशंकुक ने माना है), न उत्पत्ति होती है (जैसा भट्टलोल्लट ने कहा है) और न अभिव्यक्ति (जैसा कि अभिनवगुप्त ने उसके पीछे माना है) होती है । अनुभव और स्मृति के बिना रस-प्रतीति नहीं हो सकती।