पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/१९६

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सिद्धान्त और अध्ययन . दर्शक या पाठक एक उभयतोपाश में पड़ जाता है । यदि वह अनुकार्यों से तादात्म्य करता है तो उसे शायद औचित्य की . सीमा का उल्लङ्घन कर लज्जा का सामना करना पड़े और यदि अपने को भिन्न समझता है तो यह प्रश्न होता है कि दूसरों की रति से उसे क्या प्रयोजन द्वाभ्यां तृतीयो' बनने का अस्पृहणीय . मूर्ख पद. वह क्यों ग्रहण करे ? भट्टनायक ने काव्यादि द्वारा रस-निष्पत्ति में तीन व्यापार माने हैं। पहला , अभिधा जिसके द्वारा शब्दार्थ का ज्ञान होता है, दूसरा भावकत्व-व्यापार जिसके द्वारा विभावादि तथा रत्यादि स्थायी भाव साधारणीकृत होकर मेरे वा पराये, शत्रु के वा मित्र के ऐसे बन्धनों से मुक्त होकर उपभोगयोग्य बन जाते हैं। सीता जनकतनया या रामकान्ता न रहकर रमणी-मात्र बन जाती है । भट्ट- नायक के अनुकूल साधारणीकृत स्थायीभाव का उपभोग होता है। भोग के व्यापार को भट्टनायक ने भोजकत्व कहा है काव्य में तीनों व्यापार होते हैं किन्तु नाटक में पिछले दो व्यापार ही रहते हैं। भोजकत्व में ग्जोगुण और तमोगुण का नाश होकर जो दुःख और मोह के कारण होते हैं शुद्ध सतोगुण का उद्रेक होने लगता है और चित्तवृत्तियों के शान्त हो जाने से वही आनन्द का कारण होता है । यह मत सांख्य मत के अनुकूल है । भट्टनायक ने संयोग का अर्थ भोज्य-भाजक-भाव लिया है और निष्पत्ति का अर्थ भुषित माना है ....... __'तस्माद्विभावादिभिः संयोगाशोन्यभोजकभाचम्मम्बन्धादसस्य निष्पत्तिभु- क्तिरिति सूत्रार्थाः । -~-काव्यप्रदीप (पृष्ठ ३६) ___भट्टनायक के मत के व्याख्याताओं में से किसी-किसी ने संयोग का अर्थ साधारणीकृत विभावादि के साथ सम्यक् योग लिया है। मत का सारांश : भट्टनायक की विशेषता यही है कि उन्होंने दुःख से सुख क्यों और सामाजिक के नायिकादि विभावों में आनन्द लेने की समस्या को हल करने के लिए अभिधा, भावकत्व और भोजकत्व तीन व्यापार माने हैं। भावकत्व द्वारा अपने और पराये के भेद को दूर करके उसके भाग की समस्या को हल किया है। . इस मत के अनुसार काव्य नाटक के विभावादि अभिधा द्वारा बोधगम्य होते हैं। उसके पश्चात् विभावादि भावकत्य द्वारा मेरे-पराये के बन्धनों से मुक्त होकर अर्थात् साधारणीकृत होकर सहृदय के उपभोगयोग्य बनते हैं। रसनिष्पत्ति का अर्थ विभावादि भोज्य-भोजक-भाव से भुक्ति है।