पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/७१

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काव्य और कला-कला की परिभाषा से बतलाते हैं। फ्रायड के अनुयायी कला को दमित वासनामों का उन्नयन या पर्युत्थान मानते हैं । ये लोग भी कला की प्रेरणा की ही व्याख्या करते हैं। क्रोचे ने इसे अभिव्यक्ति माना है, कुशल अभिव्यक्ति भी नहीं। उसके मत से अभिव्यक्ति यदि होती है तो कुशल और सुन्दर सब-कुछ होती है। शायद क्रोचे से ही प्रभावित होकर गुप्तजी ने भी कला को कुशल अभिव्यक्ति कहा है :- 'अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला' -साकेत (पञ्चम सर्ग, पृष्ठ १७) प्रसादजी ने अपने 'काव्य और कला' शीर्षक निबन्ध में कला की क्षेमराज- कृत परिभाषा जो "शियसूत्र-विमर्शिनी' से दी है वह हेगिल की परिभाषा की कोटि में आयेगी। हम यह भी देख सकते हैं कि हेगिल-की-सी विचारधारा हमारे यहाँ पहले से वर्तमान थी। यह परिभाषा प्रसादजी द्वारा किये गये अनुवाद सहित नीचे दी जाती है :- 'कलयति, स्वरूपं श्रावेशयति, वस्तुनि वा तत्र-तत्र प्रमातरि कलनमेव कला अर्थात्-नव-नव स्वरूप-प्रथोल्लेख-शालिनी संवित वस्तुओं में या प्रमाता में स्व को, आत्मा को परिमित रूप में प्रकट करती है, इसी क्रम का नाम कला है। ---काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध ( काव्य और कला, पृष्ठ ४३) काव्य की भाँति कला के विचार में नीचे की बातों का योग रहता है :-- १. कलाकार का आत्म-भाव या आपा (Personality) कला-विज्ञान की भाँति कलाकार से निरपेक्ष नहीं है, इस आत्म-भाव से कलाकार के आनन्द का भी सम्बन्ध है। २. प्रकृति के सम्पर्क में पाये हुए कलाकार के भाव और विचार जिनमें सौन्दर्य और हित, प्रेय और श्रेय का समन्वय रहता है । ३. उन विचारों या भावों की अभिव्यक्ति और उसका माध्यम ( पत्थर, स्याही, कागज आदि )। ४. कला के द्रष्टा या श्रोता । टाल्सटाय ने कला की संक्रामकता पर अधिक बल दिया है । उसका कथन है कि कलाकार कुछ संकेतों द्वारा अपने भावों को दूसरों तक पहुँचाता है और वे दूसरे उन भावों से प्रभावित हो उनका अनुभव करते हैं। कला के लिए दर्शक, पाठक और श्रोता आवश्यक हो जाते हैं। संक्षेप में कह सकते हैं कि कला कलाकार के प्रानन्द की श्रेय और प्रेय तथा आदर्श और यथार्थ को समन्वित करने वाली प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति