पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/९१

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साहित्य की मूल प्रेरणाएँ-कला के प्रयोजन काव्य और कला को एक सौरभमय आश्रय-भूमि के रूप में मानते हैं। ये लोग सोचते हैं कि दुनिया का सुधार हमारे वश का नहीं, उसके सङ्घर्ष में पड़कर हम क्यों अपनी शान्ति भङ्ग करें। कला की विश्रामदायिनी गोद में बैठकर क्यों न अपने दुःख तथा संसार को भूल जायें, हम शहर के अंदेशे से वृथा क्यों लटें। हम संसार के कर्कश करुणा-कन्दन से अपनी नींद क्यों हराम करें और दुर्गन्ध- युक्त वातावरण से अपनी नाक को क्यों सड़ावें । हम क्यों न नदी के उस पार लहलहाती फुलवारी के सामने बैठकर शोर-गुल' और 'कोलाहल की अवनी' से छुटकारा पायें। ऐसे लोग वास्तविकता की कठिन भूमि छोड़कर कल्पना के स्वप्नलोक में विचरना चाहते हैं । ऐसे स्वप्नलोक का एक चित्र देखिए :- 'चाहता है यह पागल प्यार, अनोखा एक नया संसार । कलियों के उच्छवास शून्य में ताने एक वितान । तुहिन-कणों पर मृदु कम्पन से सेज बिछार्दै गान ॥ जहाँ सपने हों पहरेदार, अनोखा एक नया संसार ।' प्रसादजी की अनेक बार उद्धृत की हुई नीचे की पंक्तियाँ इसी पलायन- बाद (Escapism) का परिचय देती हैं :- 'ले चल वहाँ भुलावा देकर, मेरे नाविक ! धीरे धीरे । जिस निर्जन में सागर-लहरी, अम्बर के कानों में गहरी-- निश्चल प्रेम-कथा कहती हो। तज कोलाहल की अवनी रे।" -लहर (पृष्ठ १०) यह पलायनवाद जीवन की फिलासफी के रूप में न ग्रहण किया जाय तो इतना बुरा नहीं है । यदि कोई शक्ति-ग्रहण करने के निमित्त निश्चित काल तक विश्राम लेता है या मन-बहलाव के लिए कुसुम के प्यालों में मधुबालाओं के साथ मधुपान की बात करता है तो पलायनवाद क्षम्य हो सकता है किन्तु यदि कोई सौरभमय वाटिका के प्रकोष्ठ के द्वार बन्द करके संसार से सम्बन्ध- विच्छेद करले तो हम इसे कायरता ही कहेंगे । क्षणिक विश्राम की आवश्यकता तो 'अभिज्ञानशाकुन्तल' में दुष्यन्त के प्रतिहारी ने भी स्वीकार की है :---