पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/९३

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साहित्य की मूल प्रेरणाएँ-कला के प्रयोजन कामायनी में भी श्रद्धा मनु को प्रवृत्ति की ओर ले जाती है :- . जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल ईश का वह रहस्य वरदान कभी मत इसको जानो भूल;' -कामायनी (श्रद्धा सर्ग) पंतजी ने भी कहा है :- 'तेरी मधुर मुक्ति ही बन्धन गन्धहीन तू गन्धयुक्त बन' -- अाधुनिक कवि : २ (तप, पृष्ठ ४६) पंत जी की यह भावना गीता की निष्काम-भावना पर आश्रित है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी इस भावना को अपनाया है :- 'वैराग्य साधने जे मुक्ति से प्रामार नय । असंख्य बन्धन माझे हे अानन्दमय लमियो मुक्तिर स्वाद ।।' -गीताञ्जलि (गीत ७३) कलाकार हमारे जीवन के सौन्दर्यपक्ष का उद्घाटन कर, हमको उसमें अनु- रक्ति प्रदान कर उसके प्रति प्रयत्नशील बनाता है । सूर की सबसे बड़ी देन यही थी कि उन्होंने जीवन के सौन्दर्य और मधुमय पक्ष को हमारे सामने रखा है जिससे कि जीवन के प्रति हमारी आस्था बढ़े और हम उसके संरक्षण तथा उसको सम्पन्न बनाने के लिए प्रयत्नशील रहें। ५. कला सेवा के अर्थ : सेवा जीवन का एक मधुर पक्ष है। सेवा द्वारा मनुष्य ऊँचा उठता है । अस्पतालों में मरीजों को कविता सुनाना, सङ्गीत सुनाना यह कला का सेवा-पक्ष ही है । चित्रण द्वारा भी समाज-सुधार-सम्बन्धी बहुत- कुछ सेवा-कार्य किया जा सकता है। ६और ७. श्रात्मानुभूति और श्रानन्द के अर्थ : यह भारतीय प्रादर्श के निकट है । कला द्वारा आत्मानुभूति में सहायता मिलती है। कला में हम अपने भावों को मूत्तिमान् देखकर एक प्रकार से अपनी आत्मा के दर्शन ही करते हैं। उसमें हमको आत्मानुभव का आनन्द आता है। वह 'सद्यः परनिवृतये' के निकट आजाता है । यह आनन्द मन को व्याप्त कर लेता है और स्रष्टा के सम्बन्ध में यह रस के बहुत निकट है । वह सृजन की अदम्य आवश्यकता (Creative __necessity) को जन्म देता है।.. ८. मनोविनोद के अर्थ : यह आनन्दः से नीचे की श्रेणी है। यह दिल-