पृष्ठ:सिद्धांत और अध्ययन.djvu/९४

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सिद्धान्त और अध्ययः बहलाव, दुःख के भूलने के लिए, जैसा कि दुष्यन्त ने शकुन्तला का चित्र बना कर किया था अथवा मन की ऊब मिटाने के लिए, जैसे लोग कभी-कभी कुछ गुनगुना उठते हैं, होता है । अच्छे प्रादमियों में मनोविनोद भावी कार्यपरायणता की तैयारी के रूप में रहता है। ____. सृजन की अदम्य आवश्यकता के अर्थ : काव्य की मूल प्रेरणाएँ आन्तरिक ही हैं । कवि में हृदय का प्रोग या उत्साह ही जो रस का ही रूप है उसको सृजन-कार्य में प्रवृत्त करता है । इसके बिना भातगाभिव्यगित की इच्छा जो बड़ी प्रबल होती है व्यर्थ हो जाती है । सच्चा साहित्य तभी रचा जाता है जब भाव हृदय की संकुचित सीमानों में सीमित न रहकर बाहर पाने को छट-पटा उठते हैं । सूर, तुलसी, मीरा आदि कवियों की रचनाएँ हृदय का बाँध फोड़कर निकली हुई प्रतीत होती हैं। 'मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई वाला पद संसार के बन्धनों का तिरस्कार करता हुआ मीरा के हृदय- स्रोत से निर्भर-गति के साथ प्रवाहित हो रहा है। ___. भारतीय दृष्टि में प्रात्मा का अर्थ संकुचित व्यक्तित्व नहीं है। विस्तार में ही आत्मा की पूर्णता है। लोकहित भी एकात्मवाद की दृढ़ आधारशिला पर खड़ा हो सकता है। यश, अर्थ, यौन सम्बन्ध (Sex), विशेष लोकहित सभी प्रात्महित के नीचे या ऊँचे रूप ह । ये . सभी हृदय के प्रोज को उद्दीप्त कर काव्य प्रेरक बन जाते हैं । हृदय का ओज 'अर्थकृते? काव्य को भी (जैसे बिहारी के सम्बन्ध में) सप्राण बना देता है । पाठक के सम्बन्ध में रस ('सयः परनिवृतये') ही मूल प्रेरणा है । रस लेखक और पाठक दोनों का प्रेरक है, सभी उद्दश्य इससे अनु- प्राणित होते हैं । यह सबका जीवन-रस है। स्वयं रस भी इनरी निरपेक्षा नहीं (ब्रह्मानन्द वस्तुनिरपेक्ष होता है, यही दोनों सहोदरों का मन्तर है), इन सब प्रयोजनों में वही उत्तम है जो प्रात्मा की व्यापक-से-व्यापक और अधिक-से- अधिक सम्पन्न अनभूति में सहायक हो। इसी से लोकहित का मान है।