सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
सुखशर्वरी।

वृध्द जो इस मायाभूमि को छोड़ कर चला गया था। इस बात को बालक नहीं जानता था । सो पिता से उत्तर न पाकर रोनी सूरत बनाकर बहिन से कहने लगा,-"देखो जीजी! कितना पुकारा, पर बाबा नहीं उठते।" बालिका ने सोचा कि यह बात छिपनेवाली नहीं है ! अन्त में प्रकाश होही जायगी । इस लिये पत्थर सा कड़ा कलेजा करके बड़े दुःख से कहा, भैया सुरेन्द्र ! पिता अब न जागेंगे, न कुछ बोलेंगे। वे सदा के लिये इस लोक को छोड़कर परलोक सिधार गए।"

कहते कहते आंखों से आंसू बहने लगे और करुणा से कण्ठ रुद्धहोगया।

बालक,-"जीजी ! झूठ कहती हो, बाबा कहां चले गए हैं ? यह देखो बाबा तो सो रहे हैं ! "

बालिका,-"यह केवल देहमात्र है, प्राणपखेरू तो देहपिञ्जर छोड़कर उड़ गया । यह पिशाचिनी निद्रा कभी भंग न होगी; अतः जो जा कर न आवै, वही मृतक कढ़ाता है।"

बालक,-"जीजी ! मर क्या गया ? मरा हुआ आदमी क्या फिर नहीं आता.?"

बालिका,-"भाई ! जानते नहीं ? वह जो नन्हू की माँ मर गई, सो क्या फिर कर आई ? उसी तरह तुम्हारे पिता भी अब न फिरेंगे।"

बालक,-"सोतो मालूम है, किन्तु सुनते हैं कि नन्हू बडा धूम करता था, इसीसे उसकी मां मर गई। पर हम लोगों ने क्या किया, जो बाबा मरगए ?"

बालिका,--"हमलोगों ने क्या किया, भाई ! जो कुछ किया, सो हमलोगों के अदृष्ट ने।"

तदनन्तर बालिका ने स्नेहपूर्वक अपने छोटे भाई को गले से लगा लिया और उसे गोदी में लेकर स्मशान के चारो ओर कुछ खोजने लगी। थोड़ी दूर पर एक धोई हुई चिता के पास बहुत से काठ के टुकड़े पड़े थे। धीरे धीरे उन्हें इकट्ठा कर के बड़ी निपुणता के संग चिता सज कर उस पर पिता का मृत कलेवर रख, चकमक से आग निकाल, अग्नि - --~- तक लेकर