उपन्यास।
भग्नगृह ।
"दैवे विमुखतां याते, न कोऽप्यस्ति सहायवान् ।
पिता माता तथा भार्या, भ्राता वाथ सहोदरः॥"
(व्यासः)
वृ द्धा, अनाथिनी बालिका और बालक सुरेन्द्र उस ठण्डी और गम्भीर निशा में निद्रित थे । धीरे धीरे निशादेवी का राज्य लुप्त होगया । कुटीर के भीतर शीतल, मन्द, सुगन्ध, समीर जलकण लिये मृदु मृदु चालों से अनाधिनी बाला को आकर स्पर्श करने लगा । अभी हम इस दुःखिनीबाला को अनाथिनी ही कहेंगे। उसने उठकर जो देखा, उससे वह बहुत स्तम्भित और चिन्तित हुई ! उसने देखा कि, 'सुरेन्द्र नहीं है और पथिक का भी कुछ पता नहीं है!' बिचारी बाला घबड़ा कर आर्तनाद करने लगी। उसके रोने से वद्धा भी उठ बैठी और सारा हाल सुनकर महादुःखित हुई । इस समय कुटीर में सूर्य्यरश्मि धीरे-धीरे आ रही थी।
अनाथिनी अनाथिनी की तरह रोने लगी। वृध्दा ने उसे बहुत समझा बुझाकर अपने जाने हुए गावों में बालक को खोजने के लिये प्रस्थान किया । अकेली बालिका क्या करती ? बड़ी चिन्तित हुई।
उसने बिचारा कि, एक दुःख के ऊपर दूसरा दुःख क्या अवश्य होता है ? हा! पिता की मृत्यु और भ्राता की चोरी! पिता ने मरते समय मेरे हाथ में सुरेन्द्र का हाथ पकड़ा दिया था। पिता तुम्हारी आत्मा इन बातों को देख कर न जाने मुझे कैसी कृतघ्न कहेगी ? मैं क्या करूं ? मैं निःसहाय और सामान्य बालिका हूं।"
अनाथिनी ने इसी तरह सोचते सोचते अपनी गठरी खोली। दो एक मैले वस्त्र निकाले, फिर न जाने क्या देख कर सहसा