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सुखशर्वरी ।

लड़का-लड़की को संग लेकर इसके बाप घर से भागे थे; पर मार्ग में आते आते उनकी मृत्यु हुई। ”

पथिक ने अपने मन में कहा,-"बस अब कहां जाता है ! वह मारा!!! " फिर प्रगट में बुढ़िया से बोला,-"हां ! ये लोग जाते कहां थे?"

वृद्धा,-'यह बात यह नहीं जानती। कदाचित् वे कोई मित्र के घर जाते थे । क्यों बेटा ! धनिकों को दूसरों पर दया नहीं आती?"

पथिक,-"यह बात क्योंकर कहूं, सदा से तो दुःख भोग रहा हूं।"

वृद्धा,-"हां भाई ! ठीक ही तो है ! हम दरिद्रों के पास क्या धरा है ? तो भी दया-मया जानती हूं। किसीका बुरा नहीं चेतती; और देखो न ! उस बूढ़े बिचारे का बालक देखकर जमोदार की आंख इसी पर गड़ गई !”

पथिक,-तुम्हें खूब दया मया है ! भाग्यों से तुम्हारा आश्रय मिला, इसीसे प्राण बचे । अबतक मैं तुम्हारे इस चर्खे को तरह घूम रहा था। अच्छा! अल्लाह के फजल से लड़का जीता रहेगा।"

वृद्धा,-"ठीक कहते हो, बेटा! ठीक है ! कुछ जंतर-मंतर दे सकते हो, जिसमें यह अच्छा रहे!"

पथिक,-"हाँ हां ! जब सबेरे जाऊंगा, तब तुम्हें कुछ दे जाऊंगा।"

वृद्धा ने संतुष्ट होकर पथिक को फल मूल आदि आहार देकर अतिथिसत्कार किया । पथिक भोजनों को आत्मसात करके सोचते विचारते सोगया।

अब जल वायु भी शान्त हुई थी । मण्डूकों की "टर्रकों टर्रकों" वाली कर्कश ध्वनि कानों में आने लगी और जल का "कल-कल" शब्द सुनाई देने लगा। धीरे धीरे वृष्टि थमी। अब शृगालों का कर्कश शब्द गगनस्पर्श करने लगा।