पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/४८

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HTT1 ॐ अष्टम परिच्छेद -29 तरुतल। "जीवति जीति नाथे, मृते मृता या मुदा युता मुदिते । सहजस्नेहरसाला, कुलवनिता केन तुल्या स्यात् ॥" (शाधरः) startasthitoर्ग में अनाथिनी कुछ देख कर स्तंभित हुई ! उसने मा देखा कि, ' एक पेड़ के नीचे कोई मनुष्य सो रहा है !' यह देखकर वह जल्दी जल्दी उस पथिक के ४४४३५१६ पास गई । चन्द्रमा की स्वच्छ चांदनी में उसने देखा कि, 'उस निद्रित पुरुष के सब शरीर में " सरला सरला" लिखा है!' " सरला का नाम देखकर अनाथिनी ने सोचा कि, जान पड़ता है कि यही व्यक्ति मेरी सरला के लिये पागल और उदासीन हुआ है ! अहा ! सरला इसके प्रेम की सामग्री है ! उस प्रेमप्रतिमा को न पा कर ये उदासीन हुए हैं!ये यथार्थही उदासीन हैं !!! अहा ! ये संसाराश्रम छोड़ कर बन बन की धूल उड़ाते फिरते और दिन बिताते हैं !" हाय ! स्त्रीजन क्या इतनी निठुर होती हैं ? अबला का हृदय क्या ऐसा बज्रसा होता है ? रमणो का प्राण क्या इतना कठोर है ? यदि सरला आती तो उसे मैं दिखाती कि, 'तेरे प्रेम से बञ्चित होकर एक व्यक्ति ने उदासीन-वृत्ति धारण की है!' कितनी स्त्रियां पुरुष के लिये पागल हो जाती हैं, और कितनी चाह के पात्र को न पाकर उन्मादिनी होती हैं ! मैं यहां क्या कर रही हूं ? उपकार करनेवाले हरिहरप्रसाद के पुत्र का उद्धार करने में आई हूँ, मैं क्या उन्हें चाहती हूं ? हां!!! यह तो मैंने मन में संकला किया है कि, 'यदि उन्हें न पाऊंगी तो पागलिनी बन कर प्राण छोड़ दूंगी, वा जंगल-पहाड़ों में जहां-तहां डोला करूंगी!' हा ! ये उदासीन यहां क्यों आए ? ये क्या उस बंदी का कुछ हाल जानते हैं ? इनसे पूछ क्या? यदि ये उठकर कहें कि, 'बंदो तो कात्यायनी के चरण