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पृष्ठ:सुखशर्वरी.djvu/५९

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उपन्यास। Parwareneumeenamewom an - एकादश परिच्छेद. अरण्य । ८. धैर्यमावह नाथ त्वं, स्थिरो भव हरिस्मर । दत्वा प्राणान्निजान् त्वाहं मोक्षयिष्यामि बन्धनात् ॥” (व्यासः) TRIEनाथिनी एक जकल के भीतर जिस मार्ग से जाती अ थी. वहां कुछ देख कर स्तम्भित हुई ! उसने सबको आगे आने के लिये कहकर और उदासीन के कान US में कुछ कहकर तथा सबका साथ छोड़कर वह अकेली जंगल में प्रविष्ट हुई और वहां पहुंच तथा कुछ देखकर बहुत ही घबरा गई ! तो उसने क्या देखा ? उहरिए, कहते हैं। अनाथिनी के अनुरोध करने से सुबदना, प्रेमदास, उदासीन और सरला आगे चले गए थे। और वह उनलोगों का संग लोड़ कर लसी जङ्गल में ठहर गई थी। एक बटवृक्ष के नीचे कर पर कपोल धर कर वह सोचने लगी; उसने क्या सोचा? यह कि, 'अब मैं अपना प्राण देदंगी! हाय ! संसार में कोई वस्तु बिना श्रम के नहीं मिलती! अहा! हरिहर बाबू के पुत्र को छुड़ाकर उनके संग विवाह करने की मेरी इच्छा थी, किन्तु हा! वह तो विफल हुई ! हा! मैंने कैसे जाना कि विफल हुई? यह देखो एक टूटी-फूटी पालकी सामने पड़ी है ! इसी पर सवार होकर भूपेन्द्र पिता के घर जाते थे। और मैंने ही बरजोरी उन्हें अकेले बिदा किया था। यह मेरी कैसी भूल हुई ! मुझे उचित था कि सब कोई साथ ही साथ जाते । यदि ऐसा होता तो कदाचित कोई बखेड़ा न खड़ा होता!' हरिहरबाबू के पुत्र का नाम भूपेन्द्र था । उन्हें कापालिक के हाथ से मुक्त करके और पालकी पर सवार कराकर घर बिदा किया था। उस शिविका को अनाथिनी चीन्हती थी, यही शिविका यहां भग्न पड़ी है! इसलिये अनाथिनी ने मन में निश्चय किया कि, भूपेन्द्र फिर किसी विपद में फंसे होंगे ! इसी मौच से डानाधिनी की आँखों से चौधारे आंसू बहने लगे और बराबर