पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१२६

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re- ms- प्रथमस्कन्ध- (३३) लेख्यो । विनती करी चरण शिरनाई । सप्त दिवस सभ मेरी आई ॥ तऊ कुटुक्को मोह न जात । पुनि धनलोभ आइ लपटातजानि बूझि मैं होत अजान। उपजत नाहीं मनमो ज्ञान। अरु तनु छूटत वहु दुख होई।।तात सोच रहे नहि कोईविना त्वचा सुमिरन क्यों होईीआज्ञा होइ करों अब सोई।।शुक कयो तन धन कुटुंब विहाई। हरिपद भजीन और उपाई। आयु भनघट जलसीछोजोअह निश हरि हरि सुमिरन कीजै ॥ नृप पटांग पूर्व इक भयो । सुतौ द्वैधरीमें तरिगयो।तेरी सप्त दिवसहै आई। कहौं भागवत सुनचितलाई । सुनि हरि कथा धरौ हरि ध्यान । जग सब जानो स्वप्न समान ॥ या विधि जो हरिपद उर धरिहौ । निस्संदेह सूर तव तरिही ॥२११ ॥ हरि यश कथा सुनौ चित लाई । जो पटांग तरयो गुण गाई ॥ नृप पटांग भयो भुव माहीं । ताके सम दितिया जग नाहीं ॥ इक दिन इन्द्र तासु घर आयो । राजा उठिकरि शीश नवायो । धन मम गृह धन भाग्य हमारो । जो तुम चरण कृपा करि धारो॥ अव मोको जो आज्ञा होई । आयसुमान करौं सब सोई इन्द्र कहयो मम करोसहाई । असुरनसों भइ मोहि लराई । इन्द्रपुरी पटांग सिधाये । नाम सुनत सो सकल पराये । सुरपतिसों नृप आज्ञा मांगी। उन कह्यो लेहु कछू वर मांगी ॥ नृपति को कहो मेरी आय । वर लेहो पुनि शीश चढ़ाय ॥ दोइ मुहूरति आयु वताई । नृप वोल्यो तब शीश नवाई।।तुरंत देहु मोहि घर पहुँचाय । तरों जाइ तहँ हरिगुण गाय ॥ एक मुहूरतमें फिरि आयो। एक मुहूरत हरिगुण गायो।हरि गुण गाय परमपद लहयो।सूर नृपति सुनि धीरज गहयो ॥२१२॥ इति श्रीमद्भागवते सूरसागरे कविवर श्रीसूरदास कृते प्रथमः स्कंधः समाप्तः ॥ - -