पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१२७

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ADS andmammeeosकाmumbare- - - - अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर. द्वितीयस्कंध। राग विलावल । हरि हरि हरि सुमिरन करौ । हरिचरणादि उर धरौ॥ शुकदेव हरिचरणन चित । लाई । राजा सों बोल्यो या भाई॥तुम कझो सप्तदिवस मम आय। कहो हरिकथा सुनौ चितलाया।। चिंता छांडि अजो यदुराई । सूर तरो हरिके गुण गाई ॥१॥ राग सारंग ॥ जो सुख होत गोपालहि गाये। सो नहिं होत जप तपके कोने कोटिक तीरथ न्हाये ॥ दिये लेत नहिं चारिपदारथ चरण कमल चित लाये। तानि लोक तृण सम करि लेखत नंदनँदन उर आये॥ वंशीवट वृन्दावन यमुना तजि वैकुंठको जाये। सूरदास हरिको सुमिरन करि बहुरि न भव चलिं आये ॥ २॥ राग केदारा ॥ सोइ रसना जो हरिगुण गावै । नैननिकी छवि यहै चतुरता ज्यों मकरन्द मुकुन्दहि धावै॥ निर्मल चित तौ सोई सांचो कृष्ण विना जिय और न भावै । श्रवणनिकी जु यह अधिकाई सुनि रसकथा सुधारस प्यावै ॥ करतेई जो श्यामहि सेवै चरणनि चलि वृन्दावन जावै । सूरदास जैये चलि ताके जो हरिजूसे प्रीति बढ़ावै ॥३॥ राग सारंग ॥ जवते रसना राम कह्यो । मानो धर्म साधि सब बैठयो पटिवेमें धौं कहा रह्यो । प्रगट प्रताप ज्ञान गुरु गमते दधिमथि घृतले तज्यो मह्यो। सारको सार सकल सुखको सुख हनूमान शिव जानि करो ॥ नाम प्रतीत भई जा जनकी लै नन्द दुःख दूरि दह्यो । सूरदास धन धन वे प्राणी जो हरिको व्रतलै निवह्यो ।।४॥ अनन्यभक्तिमहिमा । राग सारंग ॥ गोविंद सो पति पाइ कहा मन अनत लगावै । गोपाल भजन विनु सुख नहीं जो चहुँ दिश धावै ॥ पतिको व्रत जो धरै चिया सो सोभा पावै । आन पुरुपको नाम लेत तिय पतिहि लजागणिकाते उपजै सुपूत कौनको कहावै । बसत सुरसरीतीर मंदमति कूप खनावैजिसे श्वान कुलालके पाछे उठि धावै । आन देव हरि तजि भजे सो जन्म गवावै ॥ फलकी आशा चित्त धारि जो वृक्ष बढावै । महामूढ सो मूल तजि शाखा जल नावै ।। सहज भजे नंदलालको सो सब शुचि पावै । सूरदास हरिनाम लिये दुख निकट न आवै ॥६॥ राग कान्हरा ॥ जाको मन लाग्यो नँद- लालहिं ताहि और नहिं भावै हो । ज्यों गूगो गुरखाइ अधिकरस सुख सवाद न बतावै हो ॥ जैसे सरिता मिलै सिंधुको बहुरि प्रवाह न आवै हो। ऐसे सूर कमल लोचनते चित नहिं अनत डुला वै हो ॥६॥ राग बिहाग ॥ जो मन कबहुँक हरिको जांचै । आन प्रसंग उपासना छांडै मन वच क्रम अपने उर सांच।।निशि दिन श्याम सुमिरि यश गावै कल्पन मेटि प्रेमरस पाचै । यह व्रत धरै लोकमें विचरै सम करि गनै महामणि काचै ॥ शीत उष्ण सुख दुःख नहिं पानै हानि भये कछु सोच न राचे । जाइ समाइ सूर वा निधिमें बहुरि न उलटि जगतमें नाचै ॥७॥ राग सारंग ॥ कह्यो