पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१२८

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द्वितीयस्कन्ध-२ (३५) शुक श्रीभागवत विचारािहरिकी भक्ति विरद है युग युग आनधर्म दिनचारि॥चिता तजौ परीक्षित राजा सुन सुखसाखि हमार । कमल नयनकी लीला गावत कटत अनेक विकार ।। सतयुग सत- नेता तप कीनो द्वापर पूजा चारि । सूर भजन कलि केवल कीजै लज्जा कानि निवारि ॥ ८ ॥ रागविलावल।गोविन्द भजन करो इहि वाराशंकर पार्वती उपदेशत तारक मंत्र लिख्यो श्रुति द्वारा।। अश्वमेध यज्ञ जो कीजै गया वनारस अरु केदाराारामनाम सरि तऊन पूजै जो तनु गारोजाइ हिवारा। सहसवारजो वेनी परसो चन्द्रायण सौवारा।सूरदास भगवंत भजन विनु यमके दूत खरेहैं द्वारा॥९॥ ॥ राग केदारा ॥हे हरि नामको आधार । और इहि कलिकाल नाही रह्यो विधि व्यवहार ॥ नारदादि शुकादि मुनि मिलि कियो बहुत विचार । सकल श्रुति दधि मथित काल्यो इतोई घृतसार ॥ दशो दिशते कर्म रोक्यो मीनको ज्यों जार । सूर हरिको सुयश गावत जाहि मिटे भव भार ।। १० ॥ ॥ अथ नाममहिमा ॥राग बिलावल ॥ हरि हरि हरि सुमिरो सब कोई । हरि हरि सुमिरत सव सुख होई ॥ हरि समान द्वितिया नहिं कोई।हरि चरणनि राखोचित गोई॥श्रुति स्मृति सब देखोजोई। हरि सुमि- रत होई सो होई ॥ हरि हरि हार सुमिरो सब कोई । विन हरि सुमिरन मुक्ति न होईकोटि उपाय करें जो कोई । हरि हरि हरि सुमिरो सब कोई ॥ शत्रु मित्र हरि गिनत न दोई । जो सुमिरे ताकी गति होई ॥ हरि हरि हरि सुमिरो सवकोई । हरिके गुण गावत सपकोई ॥ रावरंक हरि गिनत न दोई । जो गावै ताकी गति होई॥ हरि हरि हरि सुमिरयो जिन जहां। हरि तिहिं दरशन दीनोतहां ॥ हरि वितु सुख नहिं इहां न वहां । हरि हरि हरि सुमिरो जहां तहां । हरि हरि हरि सुमिरो दिनरात । नातर जन्म अकारथ जात । सौ वातनिकी एकौ वात ।। सूर सुमिरि हरि हरि दिन रात ॥ ११॥ जन्म जन्म जब जब निहिं निहिं युग जहां जहां जन जाइ। तहां तहां हरि चरण कमल रति जो दृढ़ होइ रहाइश्रिवण सुयश सारंग नाद विधि चातक विधि मुख नाम । नैन चकोर संत संतति शशि करि अर्चन अभिराम ॥ सुमति स्वरूप सचै सर घालो उर अंबुज अनुराग । नित प्रति अलि जिम गुंज मनोहर आवत प्रेम पराग ॥ औरौ सकल सुकृत श्रीपति हित तन मन रहत सुप्रीति । नाक निरै सुख दुख न सूरप्रभु जिहिके भजन प्रतीति ।। ॥१२॥अथ हरिविमुख निंदा ॥ राग सारंग ॥ अचंभो इन लोगनिको आवाछड़ेि खान अमीरस फलको माया विपफल भावै ॥ निंदत मूढ़ मलय चंदनको राख अंग लपटावै । मान सरोवर छोड़ि हंस तट काग सरोवर न्हावै ॥ पगतर जरत न जाने मूरख घर तजि धूर वुझावै । चौरासीलख योनि स्वांग धरि भ्रमि भ्रमि यहि हँसावै ॥ मृग तृष्णा आचार युक्त जल तासँग मन ललचावै । कहत जु सूरदास संतनि मिल हरियश काहे न गावै ॥ १३ ॥ भजन विनु कूकर शूकर जैसो । जैसे घर दिलाव के मूसा रहत विषय वश तैसो ॥ वकी वकुला अरु गीध गीधनी आइ जन्म लियो वैसो । उनहूंके यह सुत दाराहैं इन्हें भेद कहो कैसो ॥ जीव मारिके उदर भरतहै तिनके लेखे ऐसो। सूरदास भगवंत भजन विनु ज्योव ऊंट खर जैसो ॥१४॥ भजन विनु जीवत जैसे प्रेत । मलिन मंदमति डोलत घर घर उदर भरनके हेत ॥ सुख कटु वचन नित्त प्रति निन्दा सगुन सुयश सुखलेत । कबहूँ पाप करै पावत धन गांठि धूत तहां देत ॥ गुरु ब्राह्मण संतजन सज्जन जात न कबहुँ निकेत । सेवा नहिं भगवंत चरणकी भवन नीलको खेत ।। कथा नहीं गुणगीत सुयश हरि साधत देव अचेत । ताकी कहा कहों सुनि सूरज चूड़त कुटुंब समेत ॥ १६ ॥ जिहितनु हरि भजबो न कियो । सोतनु शूकर श्वान मीन ज्यों इहि सुख कहा जियो॥जो जगदीश repwwwwwwmammwONARomanmARRIED