पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१३१

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(३८) सूरसागर। विहान । आतमरूप सकल घट दरश्यो उदय कियो रवि ज्ञान ॥ में मेरी अब रही न मेरे छटयो। देह अभिमान । भाव परो आजुही यह तनु भावे रहो अमान।।मेरे निय अब यह लालसा लीला श्रीभगवान । श्रवण करौं निशि वासर हित सा सूर तुम्हारी आन॥३३॥अथ शुकदेववचन । राग सारंग ।।. करो शुक सुनो परीक्षितराव । ब्रह्म अगोचर मन वाणोते अगम अनंत प्रभाव ॥ भक्तन हिन। अवतार धारि जो कार लोला संसार । कहीं ताहि जो सुने चित्त दे सूरतरै सो पार ॥ ३४॥ अथ नारद ब्रह्मा संवादा रागविलावल ॥ नारद ब्रह्माको शिरनाई। कह्यो सुनो त्रिभुवनपतिराई ।। सकल सृष्टि यह तुमते होई। तुमसम द्वितिया और न कोई ।। तुम हो धरत कौनको ध्यान । यह तुम ! मोसों कहो वखान ।। कह्यो कर्ता हर्ता भगवान । सदा करत मैं तिनको ध्यान ॥ नारदसों कह्यो । विधि या भाई । सूरकह्यो त्योंही शुक गाई ॥ ३५ ॥ अथ चतुर्विंशति अवतार वर्णन || रागधनाश्री ! जो हार करे सो होई कर्ता नाम हरी ।ज्यों दर्पण प्रतिबिंब त्यों सब सृष्टि करी ॥ आदि निरंजन निराकार कोउ हुतो न दूसर । रचो सृष्टि विस्तार भई इच्छा इक औसर ।। त्रिगुण तत्त्वते महातत्व महातत्त्वते अहंकार । मन इंद्रिय शब्दादि पंची ताते किये विस्तारशब्दादिकते पंचभूत सुन्दर प्रगटाये पनि सबकोरचि अंड आपमें आप समाय।तीनलोक निजदेहमें राखेकरि विस्तार आदि पुरुष सोई भयो जो प्रभु अगम अपार ॥ नाभिकमलते आदिपुरुप.मोको प्रगटायो । सोजत युग गए वीति नालको अंत न पायो । तिन मोसों आज्ञा करीराच सव सृष्टि उपाई । स्थावर जंगम सुर असुर रचे सर्वे में आई॥मच्छ कच्छ वाराह बहार नरसिंह रूप धरि । वामन बहुरोपरशराम पुनि राम रूप कार ॥ वासुदेव सोई भयो बुध भयो पुनि सोई । सोई कल्की होइ ओर न द्वितिया कोई ॥ ए दश हे अवतार कहों पुनि और चतुर्दश । भक्तवछल भगवान धरे पु भक्तनिके वश ॥ अज अविनाशी अमर प्रभु जन्मै मरे न सोई । नटवर कलाकरत सकल बूझे विरला कोई॥ सनकादिक पुनि व्यास बहुरि भए हँसरूप हरि । पुनि नारायण ऋपभदेव बहुरयो धन्वंतरि ॥ नारद दत्तात्रेय हरि यज्ञ पुरुप वपु धारि । कपिल मोहनी पृथु हयग्रीव सुध्रुव उद्यारि ॥ भूमिरेणु कोऊ गनै और नक्षत्रन समुझावै । कहो चहै अवतार अंत सोऊ नहि पावे ॥ सूर कही क्यों कहि सके जन्म कर्म अवतार। कहै कछुक गुरुकृपाते श्रीभागवत अनुसार ।। ३६ ॥ ब्रह्मा उत्पत्ति चतुःश्लोक प्रति ! राग बिलाबल ॥ ब्रह्मा यों नारदसों कह्यो । जब मैं नाभिक मलते भयो । खोजत नाल कितो युग गयो। तर में कछू मर्म ना लह्यो । भई आकाश वाणी तिहि वार। तृ ए चारि श्लोक विचार ।। इनै विचारिते हहै ज्ञान । ऐसी भांति कह्यो भगवान ।। ब्रह्मा जो नारदसों कही। व्यास सोई नारदसों लही ॥ व्यास कही मोसों विस्तार । भयो भागवत या प्रकार ॥ सोई में अब तोसों भाखों । तेरे हृदय न संशय राखों। सुल भागवत को एइ चार। सुर भली विधि इन्हें विचार ॥३७॥ अथ चतुःश्लोकी श्री मुख वाक्य । राग कान्हरा ।। पहिले होहिं हों तब एक । अमल अकल अन भेद विवर्जित सुनि विधि विमल विवेक ॥ सो हौं एक अनेक भांति करि शोभित नाना भेप । ता पाछे इन गुणनि गाएते हौं रहिहौं अवशेष झुठीहै सांची सी लागति मम माया सो जानि । रवि शशि राहु संयोग विना ज्यों लीजत है मन । मानि । ज्यों गज स्फटिक मध्य न्यारो वसि पंच प्रपंच विभूत ॥ ऐसे मैं सबहुनते न्यारो मणि ग्रंथित ज्यों सूत ॥ पहिले ज्ञान विज्ञान द्वितिया पद तृतीय भक्तिको भाव । सूरदास सोई समष्टि कार व्यष्टि दृष्टि मन लाव॥३८॥ इनि श्रीकविवर सूरदासकृने श्रीमद्भागवते सूरसागरे द्वितीयारकंधः समाप्तः॥