पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१३७

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सूरसागर । अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर. चतुर्थस्कंध। (राग विलावल) हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो।हरि चरणाविन्द उर धरों।कहों अव दत्तात्रेय अवतार राजा सुनौ ताहि चित्त धार। अत्रि पुत्र हित बहु तपकियो। तासु नारिहूं यह व्रतलियो ॥ तीनो देव तहां मिलिआयो तिनसों ऋषि यह वचन सुनायो।।मैं तो एक पुरुपकोध्यायो।अरु एकहि सों मैं चितं लायो॥अपने आवनको कहो कारण। तुमही सकल जगत निस्तारण ॥ कह्यो तुम एक पुरुप..जो । ध्यायो । ताको दरशन काहू पायो । ताकी शक्ति पाइ हम क प्रतिपालो बहुरो संह।। हम तीनोहें जग करतार। मांग लेहु हमसों वर सार।कह्योविनय मेरी सुनि लीजै।ज्ञान मान पुत्र मोहिं दीजै ।। विष्णु अंश दत्त अवतरे। रुद्र अंश दुर्वासा ढरे॥ ब्रह्म अंश चंद्रमा भयो । अत्रि अनुसूयाको । सुख दयो । यो भए दत्तात्रेय अवतार । सूर कह्यो भागवत अनुसार ॥ १ ॥ शुकदेव वचन । हरि हरि हरि हरि सुमिरन करों। हरि चरणार्विंद उर धरों ॥ शुकदेव हार चरणन चित्त लाई। राजा सों बोल्यो या भाई ॥ कहौं हरिकथा सुनौ चित लाई । सूर तरयो हरिके गुण गाई ॥२॥ यज्ञ पुरुष अवतार वर्णन | दक्षके उपनी पुत्री सात । तिनमें सती नाम विख्यात. ॥ महादेव को सो पुनि दई। यज्ञ दक्षके में सो मुई। तहां कियो हरि यज्ञ अवतार ॥ सूर कह्यो भागवत अनुसार ॥ ३ ॥ ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करौ । हार चरणार्विंद उर धरौ ॥ कहौं अब यज्ञ पुरुष अवतार । राजा सुनौ ताहि चित धार ॥ सती दक्षके पुत्री भई । दक्ष सुमहादेवको दई ॥ ब्रह्मा महादेव ऋपि सारे । एक दिन वैठे सभा मझारे । दक्ष प्रजापति हूँ तहां आए। करि सन्मान सवनि बैठाए ॥ काहू समाचार कछु पूछे । काहूसे बहुरो उन पूछे।। शिवकी लागी हरिपद तारी। ताते नहिं शिव आंख उघारी ॥ महादेव वैठे रहि गए। दक्ष देखिकै. तिहि दुख तए ॥ महादेवको भापत साधु । मैं तो देखो बहुत असाधु ॥ यज्ञ भाग ताको नहि... दीजै । मेरो कह्यो मान करि लीजै ॥ नन्दी हृदय भयो सुनि ताप । दियो ब्राह्मणको तिन शाप ॥ श्रुति पढ़िक तुम नहिं उद्धरि हो । विद्या वेचि जीविका करिही ।। भृगु तव कोपहोय तहँ कहो।। तैं शराप सबहुनको दयो ॥ महादेव हित जो तप करिहै । सोऊ भव जलते नहिं तरिहैं ॥ दक्ष । प्रजापति यज्ञ रचायो । महादेवको नहीं बुलायो । सुर गंधर्व जे नेवति बुलाये । ते सब बधू सहित तहां आए। सती सवनि तिन्ह आवत देखी । शिवसों वोली वचन विशेखीं। चलिए द क्ष गेह हम जाहीं। यद्यपि हमैं वोलायो नाहीं ॥ मोको तो यह अचरज आयो । उन हमको कैसें. विसरायो । गुरु-पितु गृह विनु घोले जैये। यहै नीति नाहीं सकुचैये।। शिव कह्यो तुम भली नीति .