पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१३८

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चतुर्थस्कन्ध- (४५) सुनाई । पै वह मानतहै शत्रुताई। वहां गये ते होइ अपमान । तो यह भली बात नहिं जान ॥ दुर्जन वचन सुनत दुख जैसो। वाणलगे दुख होय न तैसो॥मम सतराई हृदये आन। करिहै तेरोऊ अपमान।भिये अपमान वहांतू मरिहै।जो मम वचन हृदय नहिं धरिहै।सती कह्योमम भगनिनिसात। सवै बोलाई छैहै मात।। मोहूंको अव आज्ञा दीजै । महाराज अब विलंब न कीजै ॥ वारंवार सतीज- व कह्यो । तव शिव अंतर्गत यों लह्यो। सती सदा मम आज्ञाकारी । कहत जु या विधिवारंवारी॥ देखत है कछु होवनहारी । सो काहू पै जाइ न टारी ॥ गणन समेत सती तहँ गई । तासों दक्ष पात नहिं कही। सती जानि अपनो अपमान ! शिवको वचन कियो अनुमान ॥ कह्यो वहां अव गयो न जाई । वैठ गई शिर नीचे नाई। शिव आहुतिकि बेर जब आई। विप्रन दक्ष पूछियो जाई। शिवनिन्दा कहि तिनसों भाष्यो । मैं तुमही पहिलेहि कहि राख्यो । मेरो वचन मान कार लेहू । शिव निमित्त आहुति मत देहू ॥ तव कै क्रोध सती तिहि कही। ते शिवकी महिमा नहिं लही। महादेव ईश्वर भगवान । शत्रु मित्र वहि एक समान ॥ ते अज्ञान जो करि शत्रुताई। उनकी महिमा तैं नहिं पाई ॥ पिता जानि तोको नहिं मारों। अपनोही मैं आप संहारों ॥ योगधारणाकरि तनुत्यागो । शिवपद कमल माह अनुराग्यो । बहुरि हिमालय के अवतरी। समयांतर हर बहुरो वरी॥ ह्यां शिवगणनि उपद्रव कियो। तब भृगुऋ- पि उपाय यह ठयो। आहुति यज्ञकुंडमें डारि। कह्यो पुरुष उपजै वल भारि ॥ पुरुप कुंडते प्रगट जुभए । भृगुके निकट चले सब गए।भृगु कह्यो करत यज्ञको नास । इनको ह्यांते देहु निकास ॥ शिवके गण तिहि बहुतै मारे । से गण शिवते जाइ पुकारे । शिव है क्रोध इक जटा उपारी। वीरभद्र उपज्यो वल भारी ॥ वीरभद्रको तहां पायो । तासों इहि विधि कहि समुझायो॥ दक्ष शिरकाटि कुंडमें डारी। आवौ वेगि न करो अवारी॥ वीरभद्र दक्षको मारयो । अरु भृगु ऋपिको केश उपारयो । हाथ पाँय बहुतनके काटे । आइ नवायो शिवहि ललाटे ॥ तव सुर ऋपि ब्रह्मापै जाय । दियो सकल वृत्तान्त सुनाय ॥ कह्यो ब्रह्मा शिवनिन्दा जहाँ । कुरो कियो तुम बैठे तहां ॥ ब्रह्मा तिहिलै शिवपै आये । शिव प्रणाम करि ढिग बैठाये ॥ शिवको सवन कियो परमान।भोला- नाथ लियो सो मान ॥ ब्रह्मा शिवको वचन सुनायो । दक्ष तुम्हारो मर्म न पायो ॥ जैसो करयो सो तेसो पायो। अब वाको तुम फेरि जिवायो।शिव कह्यो मेरे नाहि शत्रुताई।सती मुई यह मनमें आई। अब जो तुमरीआज्ञा होई । छाडि विलंब कीजिए सोई ॥ ब्रह्मा विष्णु रुद्र तहँ आए । भृगु ऋ- पिकेश आपुने पाए ॥ घायल सब नीके है गए । सुर ऋपि सबके भाए भए । दक्ष शीश कुंडमें जरयो । ताके बदले अज शिर धरयो । महादेव तेहि फेरि जिवायो॥ दक्षजानि यह शीश नवायो । विप्रन यज्ञ बहुरि विस्तारयो । वेद भली विधि सों उच्चारयो ॥ यज्ञपुरुप प्रसन्न जव भए । निकसि कुंडसे दरशन दए ॥ सुंदर श्याम चतुर्भुज रूप । ग्रीवा कौस्तुभमाल अनूप ॥ उठिकै सबहुन माथो नायो । दक्ष बहुरि यह विनय सुनायो ॥ मैं अपमान रुद्रको कियो । तर मम यज्ञ साँग नहिं भयो ॥ अव मोहिं कृपा कीजिए सोई । फिर दुर्बुद्धि न ऐसी होई ॥ बहरो भृगुऋपि स्तुति कीनी । महाराज ममबुद्धि भइ हीनी । दियो क्रोध करि शिवहि शराप। करौ कृपा जुमिटै यह दाप ॥ पुनि शिव ब्रह्मा स्तुति करी। यज्ञपुरुप वाणी उच्चरी ॥ दक्षते कियो शिवहि अपमान । ताते भई यज्ञकी हान ॥ विष्णु रुद्र विधि एकहि रूप । इन्हें जान मत भिन्न स्वरूप ॥ जाते यह प्रगट भइ आई।ताको तू मनमाहि धिआई ॥ यो कहि पुनि वैकुंठ ।