पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५४

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अष्टमस्कन्ध-८ (६१) अथ कविवर सूरदास कृत- श्रीसूरसागर. अष्टमस्कंध। राग बिलावल ॥ चालि ॥ हरि हरि हरि हरि सुमिरन करो। हार चरणार्विद उरधरो ॥ हरि चरणन शकदेव शिरनाई । राजा सों वोल्यो या भाई। कहां हरि कथा सुनो चितलाई । सूरदास हरि के गुणगाई॥१॥ गजमोचन अवतार । राग गिलावळ ॥ गज मोचन ज्यों भयो अवतार ।कहौं सुनो सो अब चितधार ।। गंधर्व एक नदीमें जाइ । देवलऋपिके पकरयो पाइ ॥ देवल कह्यो ग्राह तुम होहि।कलो गंधर्व दया करि मोहि ।। जव गजेंद्रके पग तू गहि है । हरि जू ताको आनि छुड़े है । भए सपर्श देवतनु परि है । मेरो कह्यो नहीं यह टरि है ॥ राजा इंद्रदुम्न कियो ध्यान । आयो अगस्त्य नहीं तिन जान ॥ दियो शाप गजेंद्र तू होहि । कयो नृप दयाकरोऋपि मोहिकह्यो तुहि ग्राह आन जब धरि है। तू नारायण सुमिरन करि है ॥ याही विधि तेरी गति होई । भयो त्रिकूट पर्वत गज सोई॥ कालहि पाइ ग्राह गज गह्यो । गज वल कार करिके थकि रह्यो । मुत पानी हूं वलकार रहे। छूटयो नहीं ग्राहके गहे ॥ ते सब भूखे दुःखित भए । गजको मोह छाँड़ि उठि गए तव गज हरिकी शरणा आयो । सूरदास प्रभु ताहि छुटायो ॥ २॥ माधवजू गन ग्राह ते छुड़ायो । निगमनि हूं मन वचन अगोचर प्रगटि स्वरूप दिखायो ।शिव विरंचि सब देखत ठाढ़े बहुत दीन दुख पायो।विन बदले उपकार करैको काहू करत न यायोचितवत चितही चिंता मणि चक्र लये कर धायो । अति करुणा करि करुणाम हरि गरुडहिंहूं छुटकायो । सुनियत सुय श जु निज जन कारन कहूं न गहर लगायो।ना जानों जु सूर इहि औसर कोन दोप विसरायो।३।। राग बिलावल ॥ हरि करचक्र धरे धर धावत ॥ गरुड समेत सकल सैनापति पाछे लागे आवत ॥ चलि ना सकत गरुड मन डरपत बुधि वल वलहि वढावत । मनो पवन वश पत्र पुरातन अपना चरण चलावताको जाने प्रभु कहाँ चलेह काहू कछु नजनावताअतिव्याकुल गति देखि देवगण सोचि सकल दुखपावत ॥ गजहित धावन जन मुकरावन वेद विमल यश गावत । सूर समुझि समुझाव अनाथान इहि विधि नाथ छुड़ावत ॥ ४ ॥ राग सारंग ॥ झांई न मिट नपाई आए हरि आतुर वे जब जान्यो गज ग्राह लये जात जलमें । यादवपति यदुनाथ खगपति साथ जन जान्यो विहवल तब छांडि दयो थलमें ॥ नीरहूते न्यारो कीनो चक्रन चक्र शीश छीनो देवकीके नन्दलाल ऐचि भुक्तलमें। कहै सूरदास देखि नैननकी मिटी प्यास कृपा कीनो गोपिनाथ आइगए पलमें ॥ ५ ॥ राग बिलावल ॥ अव हौं सव दिशि हेरि रह्यो । राखत कोऊ न नाथ कृपानिधि अति बल ग्राह गयो ॥ सुर नर सव स्वारथके गाहक कत श्रम आन करै । उडगण उदित तिमिर नहिं नाशत विन रविरूप धरे । इतनी वात सुनत करुणामय चक्र 30- . .