पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५७

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(६४) सूरसागर। .. - चर्चित चन्दन नील कलेवर वरसति बुंदन सावन ।। चरण धोइ चरणोदक लीनो मांगि देउ मम- भावन । तान पंड वसुधा ही चाही परण कुटीको छावन ।। इतनो कहा विप्र ते माग्यो बहुत रत्न देउँ गावन । सूरदास प्रभु वोल छले वलि धरयो पीठि पदपावन ॥ १२॥ राग मलार ॥ राजा इक पंडित पौरि तुमारी। चारो वेद पढ़े मुख आगर रहै वामन वपुधारी । अपद दुपद पशुभापा बूझे अविगत अल्प अहारी। नगर सकल नर नारी मोहे सूरज ज्योति विसारी सुनि आनंद चले नलि. राजा आहुति यज्ञ विसारी । देखि स्वरूप सकल कृष्णाकृत कीनी चरण जुहारी ।। चलिए वि. प्रजहां यज्ञ वेदी बहुत करी मनुहारी। जो मांगो सोइ देहु तुरतही हीरा रतन भंडारी ।। रहुरहु राजा यों नहिं कहिये दूषण लोगै भारी। हूंठ पंडदे वसुधा हमको तहां रचौं धर्मसारी॥शुक करो सुन हो बलिराजा भूमिको दान निवारी । एतो विप्र न होवै राजा आए छलन मुरारी॥ कहि. धो शुक्र कहां धों कीजै आपुन भए भिखारी। जैजैकार भयो भुवमापति तीन पैंड भइ सारी ॥ || आध पैंड दे वसुधा राजा नातरि चल सतहारी।अव सत क्यों हारों जगस्वामी नापो देह हमारी ॥ सुरदास बलि सर्वस दीनो पावोराज्य पतारी॥३३॥मत्त्यभवतार वर्णन।।रागमालासुरनहेतु हरि मत्स्यरूप । धारयोसदाही भक्त संकट निवारयो।चतुर्मुख को श्रुति चतुर शंखा असुर ले गयो तबै परले दिखा यो।भक्तवत्सल कृपाकरन अशरन शरन मत्स्यको रूप तहां धारि आयोगस्नान करि अंजली जल. जवै नृप लियो मस्त्यको देखि कह्यो डार दीजै ।मत्य कह मैं गही आय तुमरी शरन करि कृपा अब मोहिं राखिलीजै ।नृप सुनत वचन चकृत प्रथमकै रह्यो कह्योमछ वचन किहि भांति भाख्यो- पुनि कमंडलु धरयो तहां सो बढ़िगयो कुंभ धरि बहुरि पुनि मांट राख्यो ॥ पुनि धरयो खाड़ तालाबमें पुनि धरयो नदीमें बहुरि तिहि डारि दीनो। बहुरि जव वढिगयो सिंधु तब लगयो तहां हरि रूप तव चीन्हलीनो ॥ कयो करि विनय तुम ब्रह्म अतु अंतही मत्स्यकोरूप किहि काज कीन्हो॥ वेद विधि चहत तुम प्रलय देखन कहत तुम दोऊ हेतु अवतार लीनो।।कबहुँ भयो राम वासुदेव कवहूं भयो और बहुरूप हित भक्त कीनोसातवें दिवस दिखराय हों प्रलय तुहिं सप्तऋषिनावमें वैठि आवे।। तोहि वैगरि, नावमें हाथ गहि बहुरि हम ज्ञान तुहि कहि सुनाौसर्प इक आइहै बड्डार तुमरे निकट । ताहिसों नाव मम शृंगवांधो।यहै कहि मत्स्य प्रभु भएअंतर्ध्यान नृपतवै आपनो कर्म साधो सातवें .. दिवस आयो निकट जलधि जब नृपति कह्यो अव कहां नाव पायो।आइगई नार तब ऋपिन तांसों । कयो आव हम नृपति तुमको वचावै ॥ पुनि कहयो मत्स्य हरि अब कहां पाइये ऋपिन कहो... ध्यान जियमाहि धारो। मत्स्य अरु सर्प ता और प्रगटित भए तवै तिनसॉनृपति कहि उचारचो.॥ ज्यों महाराज या जलधिते पार कियो भव जलधि हूं पार करो स्वामी अहं. ममता हमैं सदा लागी रहति मोह मद क्रोधयुत मंद कामी ॥ कमें सुख हित करत होत तहां दुःख तव इतेपरमूढ नाही संभारत। करन कारन महाराज हैं आपही ध्यान प्रभु कौन मनमाहि धारत ॥ विनुतुमारी कृपा गति न ही नरनको जानि मोहि आपनो कृपा कीजोजन्म अरु मरनमें सदा दुःखित रहत देह मोहिं जान जो : सदा जीजै । मत्स्य भगवान कह्यो ज्ञान पुनि नृपतिसो भयो सुपुराण सब जगत जान्यो । लेहु अब ज्ञान को आंखि अव मीचि तू मत्स्य जो कह्यो सो नृपति मान्यो । आंखिको खोलि जव नृपतिः देख्यो बहुरि कह्यो हार प्रलय माया दिखाई । कह्यो जो ज्ञान भगवान सो.आनि नृपति उर निज आयु इहिविधि विताई।। बहुरि शंखासुरै मारि श्रुति आनिदै चतुर्मुख विविध स्तुति सुनाई ॥ सरके प्रभूकी.नित्य लीलावनी सकै कहि कौन यह कछुक गाई॥ १४ ॥...... .. इति श्रीमद्भागवते-सूरसागरे कविवर श्रीसूरदास कृते अष्टमःस्कंधः समाप्तः ॥ ८ ॥ ।