पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१५६

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अष्टमस्कन्ध-८ असुर सव अमृत लैगए छिनाई । कयो भगवान चिंता न कुछू मन धरौ मैं करों अब तुम्हारी सहाई ॥ परस्पर असुर तब युद्ध लागे करन होय बलवंत सोइ ले छिनाई।मोहिनी रूप धरि श्याम आए तहां देखि सुर असुर सवही लोभाई ॥ आइ असुरन कह्यो लेहु यह अमृत तुम सवनदेह वाँटिमेटो लराई ॥ हँसि कहो नहीं हम तुम कछू मित्रता विना विश्वास वाव्यो नजाई ॥ कह्यो तोहि वांट पर हमें विश्वास है देहु तुम वांट जो धर्म होई । कयो सव सुर असुर मिलि कियो दधि मथन देउ सब बांट है धर्म सोई ॥ कयो जो करोसो हमैं परमान है असुर सुरपांति करि तब विठाई । असुर दिश जिते मुसकाइ मोहे सकल सुरनको अमृत दीनो पिलाई ॥ राहु शशि सूर्यके वीचमें वैठिकै मोहनी सों अमृत मॉगि लीनो । सूर्य शशि को जय असुर यह कृष्ण जूलै सुदर्शन सुदै टूक कीनो। राहु शिर केतु धरको भयो तवहितें सूर शशिका । सदा दुःखदाई। करत भगवान रक्षा शशि उ सूरकी होत है सुदर्शन तव सहाई ॥ करि अंत Oन तब मोहनीरूपको गरुड़ असवार ढ तहां आए । असुर चकृत भए कहां गइ नारिवह सुर असुर युद्ध हेतु दोउ धाए । सुरनकी जीति भई असुर मारे बहुत जहां तहां गए सवही पराई। सूर प्रभु जिहि करे कृपा जीतै सुई विनु कृपा जाइ उद्यम वृथाई ॥ ८ ॥ मोहिनी रूप । राग मारू ॥ हरि कृपा करें जीते सोई। वाद अभिमान जिन करो कोई । पाइ सुधि मोहनीकी सदाशिव चले जाइ भगवान सों कहे सुनाई।असुर अजितद्रिय देखि मोहित भयेरूपसो मोहिं दीजे दिखाइौहार करो ब्रह्म व्यापक निराकार सो निर्गुण तुम सगुणले कहा कारहो।। पुनि कयो वीनती मान लीने प्रभू उमा देख्यो चहत कृपाधरिहो । हरि कह्यो तुमै दिखराह हौं रूप वह करो विश्राम इकठौर जाई। वैठि एकांत जोहन लग्यो पंथ शिव मोहनी रूप करदै दिखाई ॥ होइ अंतर्ध्यान मोहनी रूप धरि जाइ वन माहि दीनो देखाई । सूर शशिकिधों चपला परमसुंदरी अंग भूषननि छवि क- हिनं जाई। हाव अरु भावकरि चलत चितवत जबै कौन ऐसोजो मोहित न होई ॥ उमाको छोड़ि अरु डारि मृगचर्मको जाइके निकट रह्यो रुद्र जोई ॥ रुद्रको देखि करि मोहनी लाज कर लियो अंतर रुद्र अधिक मोलो। उमा हूं देखि पुनि ताहि मोहित भई तासु समरूप अपनो न जोह्यो । रुद्र धीरज तज्यो जाइ ताको गयो सो चली आपको तव छुडाई ॥ रुद्रको वीर्य छुटिकै परयो धरणि पर मोहनी रूप हरि लियो दुराई॥देखिकै उमाको रुद्र लज्जित भए कह्यो मैं कौन यह काम कीनो। इंद्रीजित कहावत होतो आपुको समुझि मनमाहि लै रह्यो खानो । चतुर्भुज रूप हरि आइ दरशन दियो कह्यो शिव सोचदीजै विहाई॥सम तुमारो नहीं दूसरो जगतमें करो तुमरूपत व दियो दिखाई ॥ नारिके रूपको देखि मोहै न जो सो नहीं लोक तिहुँ माहिं भावे । सूरस्वामी शरन रहित माया सदा को जगत जौन कपि ज्यों नचावै ॥ ९॥ राग बिलावल ॥असुर दै हुते बलवंत भारी। सुंद उपसुंद स्वेच्छा विहारी॥ भगवती तबै दीनी देखाई । देखि सुंदरी दोउ रहे लुभाई ॥ भगवती कह्यो तिनको सुनाई। युद्ध जीतै सुं मुहि वरै आई। तब दुहूं युद्ध कीनो तहाई । करि मुये तुरंतहि दोउ भाई ॥ देखिकै नारि मोहित जो हो । आपुनो मूल या विधि सुखोवै ॥ शुक नृपति पास जेहि विधि सुनाई । सूर ज्यों ही तेहि भांति गाई ॥१०॥ वामन अवतार वर्णनाराग बिलावल ॥ जैसे भयो वामन अवतार। कहौं सुनो सो अब चितधारहरि जब अमृत सुरन पियायो। तब बलि असुर बहुत दुख पायो । शुक्र ताहि पुनि यज्ञ करायो । सुरजै राज्य त्रिलोकी पायो । निन्यानवे यज्ञ पुनि किये । तव दुख भयो अदितिके हिये ॥ हरि हित उन पुनि बहुत पुकारयो । सूरश्याम वामन वपु धारयो॥११॥ राग मलार ॥ द्वारे गढ़े हैं द्विज वामन। चारोवेद पढ़त मुख आगर अति सुगंध सुर गावन ॥ वाणी सुनि बलि पूछन लागे इहां विप्र करो आवन ।।