पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१६२

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नवमस्कन्ध-९ मच्छ इक देखत भयो। सहित कुटुंब सो क्रोडाकरै ।। अति उत्साह हृदय में धरै। ताहि देखिकै ऋपिमन आई। गृहआश्रम है अति सुखदाईतप तजिकै गृह आश्रम करौं । कन्या एक नृपतिकी घरौं । कह्यो मान्धातासों जाइ । पुत्री एक देहु मोहिराइ ॥ नृप कझो देखि वृद्ध ऋपि देह । हैं पचास पुत्री मम गेह ॥ अंतःपुर भीतर तुम जाहु । वर तुम्हें सो देहुँ विवाहु ॥ तव ऋषि मनमें करें विचार । वृद्ध पुरुपको वरै न नार॥ तप बल कियो रूप अति सुन्दर । गयो सु तहां जहां नृप मन्दिर । सव कन्या सौभरिको बरयो। ऋपि विवाह सवहिन सो करयो । ऋपि तिनके हित गेह बनाए । तिनके भीतर बाग लगाए ॥ भोग समग्री भरे भंडार ॥ दासी दास गनत नहिं पार ऋपि नारी मिलि बहु सुख पाये। सहस पचास पुत्र उपजाये। तिनके बहुत भई संतान । कहांलौं तिनको करौं वखान ॥ बहुतकाल या भांति वितायो । पैऋपि मन संतोप न आयो ॥ कह्यो विपयते तृप्ति न होय । केतो भोग करौ किन कोय॥ या विधि जव उपज्यो वैराग । तब तप करि कीन्यो तनु त्याग ॥ सब नारिनि सहगामिनि कियो। हरिजू तिनको निज पद दियो । ताते बुध हरि सेवाकरै। हरि चरणन नितही चित धरै ।। शुक नृपसों ज्यों कहि समुझायो । सूरदास त्योंही कहि गायो॥६॥ श्री गंगा भुवलोक भागमन कथा॥ राग भै।शुकदेव कहयो सुनौ नरनाह । गंगा ज्यों आई जग माह|कहों सुकथा सुनौ चित लाई । सुने सुभवतरि सुरपुर जाई ॥ शतमों यज्ञ सगर जब ठयो । इन्द्र अश्वको हरिलै गयो । कपिलाश्रम लै ताको राख्यो । सगर सुतन तव नृपको भाष्यो। हम सब लोक माहिं फिरि आए। है के खोज कहूं नहिं पाए ॥ आज्ञा होइ जाहिं पाताल । जाहु तिन्हें भाप्यो भूपाल ॥ तिनके खोदे सागर भये। कपिल आश्रम ते पुनि गये । अश्व देखि को धाबहु धावहु । भागि जाहि मति बिलम लगावहु॥कपिल कुलाहल सुनि अकुलायो।कोप दृष्टि करि तिन्हें जरायो । सगर नृपति जब यह सुधि पाई । अंशुमानको दियो पठाई।।तिन कपिल स्तुति बहु विधि कीनी । कपिल ताहि यह आज्ञा दीनी।। यज्ञ हेतु अश्व यह लेहु । भ्रात तुमारे भये जु खेहु । सुरसरि जव भुव ऊपर आवै । उनको अपनो जल परसावै ॥ तवही उन सबकी गति होई तापिन और उपाव न कोई।।अश्व लाइ यज्ञ पूरण कियो । अंशुमान राजा पुनि भयो । अंशुमान पुनि राज विहाई । गंगा हेतु कियो तप जाईयाही विधि दिलीप तप कीनो । पै गंगा जू वर नाह दीनो ॥ भागीरथ जब वहु तप कियो। तव गंगाजू दर्शन दियो ॥ कह्यो मनोरथ तेरो करौं। पै मैं जव अकासते परौं । मोको कौन धारना करै। नृप कह्यो शंकर तुमको धरै ॥ तव नृप शिव की सेवा कीनी । शिव प्रसन्न है आज्ञा दीनी ॥ गंगासों नृप जाइ सुनाई । तब गंगाजू भुव में आई साठ सहस्त्र सगरके पुत्र । कीने सुरसरि तुरत पवित्र ॥ गंग प्रवाह माहिं जु अन्हाई । सो पवित्र है हरिपुर जाई ॥ गंगा इहिविधि भुव पर आई । नृप मैं तुमसों भापि सुनाई ॥ शुक नृपसों ज्यों कहि समुझायो। सूरदास त्योंही कहि गायो।। ७॥ श्री गंगाविष्णु पादोदककी स्तुति वर्णन ॥ राग बिलावल हरिपद कमलको मकरंद । मलिन मति मन मधुप परिहरि विषय नीरस फंद ॥ परम शीतल जानि शंकर शिर धरयो तजि चंद । नाक सरवसु लैन चाहो सुरसरीको विद ॥ अमृत हूते अमल अति गुण स्त्रवति निधिआनंद । सूर तीनो लोकपरस्यो सुर असुर जस छंद । ८॥ राग भैरों ॥ जय जय जय जय माधव वेनी । जगहित प्रगट करी करुणामय अगतिनको गति देनी।। जानि कठिन कलि काल कुटिल नृप संग सजी अब सैनी । जनु ता लगि तरवार त्रिविक्रम धरि करि कोप उपैनी ॥ मेरु मूठिवर वारि पाल क्षिति बहुत वित्तको लैनी। सोभित अंग तरंग विसंगम धरी धार अति % D-