पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१७४

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नवमस्कन्ध-९ (८) धरयो हनुमंत ॥ सुग्रीव को तारका मिलाई वध्यो पालि भयमंत । अंजनि कुँवर रामको पाइक ताके वल गजैत ॥ लेहु मातु मुद्रिका निसानी दई प्रीति करि नाथ । सावधान द्वै सोक निवारो ओडहु दक्षिण हाथ ।। खिन मुंदरी खिनही हनुमत सों कहति विसूरि विसूरि । कहि मुद्रिक कहां तैं छांडे मेरे जीवनमूरि ॥ कहियो वच्छ संदेशो इतनो जब हम एकत थान । सोवत काग छुयो तनु मेरो वरहिर कीनो वान ॥ फोरयो नयन काग नहिं छाँड्यो सुरपति के विदमान । अब वह कोप कहां रघुनंदन दशशिर कंठ विरान ॥ निकट बुलाइ बैठाइ निरखि मुख अंचर लेत बलाइ। चिरजीयो सुकुमार पवनसुत गहति दीन है पाइ ॥ बहुत भुजनि वल होइ तुमारे ये अमृत फल खाहु । अवकी वेर सूर प्रभु मिलिहो वहुरि प्राण किनि जाहु ॥ ८१ ॥ हनुमत साता समाधान ॥ राग मारू जननी हौं अनुचर रघुपति को । मति माता करि क्रोध शरापै नहिं दानव धिग मति को ॥ आज्ञा होइ देउँ कर मुंदरी कहौं संदेशो रति को।मति हिय विलख करो सिय रघुवर वधि हैं कुल दैयत को ॥ कहौ तु लंक उखारि डारि देउँ जहां पिता संपति को। कहो तु मारि संहारि निशाचर रावण करौं अगति को। सागर तीर भीर वनचर की देखि कटक रघुपति को । लै मिलइहाँ अयहि सूर प्रभु राम रोप डर अतिको ॥ ८२॥ राग मारू ॥ अनुचर रघुनाथ तेरे दरश काज आयो । पवनपूत कपि स्वरूप भक्तनमें गायो॥ तपन जहां तपन करे सोइ बनमैं झांक्यो जाकी तुम छांह वैठी सोई तुम मैं राख्यो । आयसु जो होइ जननी सकल असुर मारौं । लंकेश्वर वांधि राम चरणन तर डारौ ॥ चढि चलौ जु पीठि मेरी अवहीं ले मिलाऊं । सूरश्री रघुनाथ जूके लीला गुण गाऊं ॥ ८३ ॥ हनुमत निराखि सीता संदेह, मुद्रिका अपते मतीति । राग मारू ॥ तुम्हें पहिचानति नाही वीर । इहि नैननि कवहूं नहिं देख्यो रामचन्द्र के तीर ॥ लंका बसत दैत्य अरु दानव उनके अगम शरीर । तोहिं देखि मेरोजिय डरपत नैनो आवत नरि ॥ तव कर कादि अँगूठी दीनी तो जिय उपजी धीर । सूरदास प्रभु लंका कारण आए सागर तीर॥ ८॥ हनूका राम लक्ष्मणके समाचार कहना, अपनो पराक्रम वर्णन।।राग सारंगाजननी हौ रघुनाथ पठायो । रामचन्द्र आयेकी तुमको देन वधाई आयोहौं हनुमंत कपट जिनि समुझोषात कहत समुझाई ॥मुंदरी दूव । धरीले आगे तब प्रतीति जिय आई।अति सुख पाइ उठाइ लई तब बार बार उर भेटति।ज्यों मलया गिरि पाइ आपनी जरनि हृदयकी मेटति ॥ लक्ष्मण पालागन करि पठयो हेतु बहुत करि माता। दई अशीश तरनि सन्मुख है चिरंजीयो दोउ भ्राता॥ विछुरनको संताप हमारो तुम दरशन | ते काट्यो। ज्यों रवि तेज पाइ दशहूं दिशि दोप कुहरको फाट्यो। ठाठे विनती करत पवनसुत । अब जो आज्ञा पाऊं ॥ अपने देख चलेको यह सुख उनहूंजाइ सुनाऊं । कल्प समान एकछन राघव कर्म कर्म करि वितवत । ताते हौं अकुलात कृपानिधि हैं पैंडो चितवत ॥ रावण हतिलै चलों साथहीलंका धरौं अपूठी।याते जिय अकुलात कृपानिधि करौं प्रतिज्ञा झूठी।यहांकी सब दशा हमारी सूरसों कहियो जाई । विनती बहुत कहा कहाँ रघुपति जिहि विधि देखौं पाई ॥ ८॥सीता आगमन मसन्न हनू धीरनदेन ॥ राग मलार ॥ वनचर कौन देशते आयो । कहँ वे राम कहां वे लक्ष्मण क्यों करि मुद्रा पायो । हौं हनुमंत रामके सेवक तुव सुधि लेन पठायो । रावणमारि तुम्हें लै जातो राम निदेश न पायो॥ तुम मति डरियो मेरी मैया राम जोरि दल ल्यायों । सूरदास रावण कुल खोवन सोवत सिंह जगायो॥ ८६॥ अन्यच॥ राग सारंग ॥ कहो कपि कैसे उतरयो पार । दुस्तर अति गंभीर वारिनिधि शतयोजन विस्तारइत उत क्रोध दैत्य कपि मारत महा अबुधि अधिकार।