पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१७५

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(८२) सूरसागर। हाटकपुरी कठिन पथ वानर आए कौन अधार ॥ राम प्रताप सत्य सीताको यह नाउ कंधार बिन अधार छनमें अवलंच्यो आवत भई न बार।पृष्ठभाग चढ़ि जनकनंदनी पौरुप देख हमार सूरदास ले जाउँ तहां जहँ रघुपति कंत तुम्हार ॥ ८७॥ हनू मिलापते सीता आनंद ॥ राग मारू ॥ हनुमत भली करी तुम आए। बार बार कहती वैदेही दुख संताप मिटाए ॥ श्री रघुनाथ. और लक्ष्मणके समाचार सब पाये । अब परतीत भई मन मेरे संग मुद्रिका लायोक्योंकीर सिंधु पार तुम उतरे क्योंकरि लंका आये ! सूरदास रघुनाथ जानि जिय तो बल इहां पठाए ।। ८८॥ सीता राम पराक्रम वर्णन उराहना समेत वेगि मिलाप हित ॥ राग कान्हरा ॥ सुन कपि वे रघुनाथ नहीं। जिन रघुनाथपिनाक पितान्यो तोरयोनिमिष महीं। जिन रघुनाथ फेरि भृगुपति गति डारी काटि तहीं। जिहिरघुनाथ हार खरदूषण हरेप्रांण शरहीं।कै रघुनाथ तज्योप्रण अपनो योगिन दशागहीं।।कै रघुनां थदुखित कानन के नृप भये रघुकुल ही।कै रघुनाथ अतुल राक्षस बल दशकंठर डरहीं।छाड़ीनारि विचारि पवनसुत लंक बाग बसही। किधौं कुचील कुरूप कुलक्षण तौं कंतहिं न चही।सूरदास स्वामी सों कहियो अव विरमियो नहीं ।। ८२ ॥ सीता निन दुःख वण्र्यो हनूमति ॥ राग मारू ॥ देखे. यह गति जात संदेशो कैसे कै जु कहौं । सुन कपि इन प्राणनको पहरो कवलों देति रहौं । ये अति चपल चल्यो चाहतहैं करत न कछू विचार । कहिधौं प्राण कहाँलौं राखौं रोकि रोकि मुख द्वार। अपनीवात जनावति तुमसोसकुचतिहों हनुमंतानाही सूर सुन्यों दुख कवहूं प्रभु करुणामय कंत९० सीता विनय निन दुःख निवारण निमित्त श्रीराम प्रति ॥ राग मारू ॥. कहियो कपि रघुनाथ राज सों यह इक विनती मेरी । नाहीं सही परति यह मोर्षे दारुण आश निशाचर केरी ॥ यह जो अंध. बीसहूं लोचन छल बल करत आनि मुख हेरी । आइ शृगाल सिंह बलि मांगत यह मरजाद जात प्रभु तेरी॥ जेहि भुज परशुराम बल करण्यो ते भुज क्यों न सँभारत फेरी । सूर सनेह जानि करुणामय लेहु छुड़ाइ जानकी चेरी॥९१ ॥ सीता निन अपराध मगटन । राग मारू ॥ मैं परदेशिन नारि अकेली । विनु रघुनाथ और नहिं कोऊ मातु पिता न सहेली ॥ रावण भेष धरयो तपसी को. कत मैं भिक्षा मेली अति अज्ञान मूढ मति मेरी राम रेख पाइन मैं पेली ॥ विरह ताप तनु अधिक: जरावत जैसे दो द्रुम बेली । सूरदास प्रभु वेगि मिलाओ प्राण जात है खेली ॥ ९२॥ हनुमत वचन ! राग मारू॥तू जननी जिय दुख जिन मानहि । रामचन्द्र नहिं दूरि कहूं पुनि भूलिहु चितचिता मति आनहि ॥ अबर्हि लिवाइ जाउँ सब रिपु हति डरपत हौं आज्ञा अपमानहि । राख्यो सुफल सँवारि सान दै कैसे निफल करौं वा वानहि ॥ हैं केतेक यह तिमिर निशाचर उदित एक रघुकुल के भानहि। काटन दे दशशीस समर मुख अपनो कृत एऊ जो जानहि ॥ देहि दरश शुभ नैन निकटः निज रिपु को नाश सहित संतानहि। सूर सप्त मोहिं इनहिं दिननि में लैजु आइ हौं कृपानिधानहि ॥ ९३ ॥ अशोकवन भंग इन्द्रनीत हनुमत मति ब्रह्म शर बंधन। राग मारूं ॥ हनुमत बल प्रगट भयो सीता जब पाई । जनकसुता चरण वंदि फूल्यो न समाई ॥ अगणित तरु फल सुगंध मधुर मिष्ट खाटे । मनसा करि प्रभुहिं अर्पि भोजनको डाटे ॥ द्रुमन गहि उपाटि लै दैदै किलकारी । दानव विन प्राण भये देखि चरित भारी ॥ विह्वल मतिहीन गए जोरे सब हाथा । वानर बन विघ्न कियो । त्रिभुवन के नाथा ॥कै निसंक अतिहि ढीठ बिडरै नहि, भाजै । मानो बन कदाले मध्य उनमत्त गज गाजे ॥ भाने मठ कूप वाय सरवरको पानी । गौरी कंत पूजत जहां नव तन दल | आनी ॥ काप्यो सुनि असुर सैन शाखामृग जान्यो। मानो जल जीव सिमिटि जाल में समान्यो।