पृष्ठ:सूरसागर.djvu/१८८

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- - । - नवमस्कन्ध-९ उपजाई । इहि अंतर सो नहुप बुलाई ॥ कह्यो तुम अश्वमेध नहिं कियो । ऋपि आज्ञा तुम सुर- पति भयो । विप्रन पर चर्दिक जो आवहु।तो तुम मेरो दर्शन पावहु।।नृपति ऋपिन पर ढ असवार चलियो तुरत शचीके द्वार ॥ काम अंध कछु रहि न सँभार । दुर्वासा ऋपिको पग मार ॥ सर्प सर्प कहि वारंवार । तब ऋपि दीन्हो ताको डार ॥ कयो सर्प ते भाष्यो मोहि । सर्प रूप तूही नृप होहि॥ जवै शाप ऋपिसों नृप पायो। तब ऋपि चरणन माथो नायोइह शरापमुक्ति ज्यों होइ ऋपि मोको अब भापो सोइ ॥ कयो युधिष्ठिर देख जोइ । तब उद्धार तेरो नृप होइ ॥ नृप ऐसो है पर त्रियप्यार । मूर्ख करत सो विना विचार॥ जो शुक नृपसों कहि समुझायो । सूरदास त्योंही कहि गायो॥ १६८ ॥ फल संनीवनी निया हेतु शुक्र गेइ गवन, देवयानी लोभावन परस्पर शाप । राग भैरव ॥ अविगति गति कछु समुझिन परे। जो कछु प्रभु चाहे सो करै ।। जिवको किये कछू नहिं होइ । को टि उपाय करो किन कोइ ॥ एक बार सुरपति मन आई । शुक्र असुर को लेत जिवाई ॥ मम गुरु । हू विद्या पढि आवे । मृतक सुरनको फेरि जिआवै ॥ निज गुरुसा भाप्यो तिन जाई । शुक्र असुर को लेत जिवाई ॥ तुमहू यह विद्या सिखि आवहु । मृतक सुरनको तुमहु जिआवहु ॥ तब तिन | कचको दियो पठाइ । कयो शुक्रको तिन शिरनाइ।मिआयो तुम पे शिरनाइ ! तुम माह विद्या । देहु । पढाइ शुक्र को तासों याभाई । देही विद्या तोहिं पढाई ॥ विद्या पढे करे गुरुसेव । सब पढि शोधे ताके टेव ।। शुक्रसता देवयानी नाम । सब गुण पूर्ण रूप अभिराम ।। सुरगुरु सुतको । देखि लुभाई। देखे ताहि पुरुपकी नाई। कितक काल व्यतीत जव भयो। गाइ चरावनको सो गयो असुरनमिलि यह कियो विचारा मुरगुरु सुतको डार मारि ॥ जो यह संजीवनि पढ़ि आई। तो हम शनिदेय जिआई। यह विचार करि कचको मारयो । शुक्रता दिन पंथ निहारयो । सांझ भये हु जब नहिं आयो। शुक्र पास तिन जाइ सुनायो। शुक्र हृदय में करी विचार । करो असुरन वहि डारो मार ॥ सुता कह्यो तिहि फेरि जिवावहु । मेरे जियके सोच मिटावहु ॥ शुक्र ताहि पढि मंत्र जिवायो । भयो तासु तनयाको भायो।। पुनि हति मदिरा माहि मिलाई । दिये दानव तिहि शुक्र पिआड़तियते इत्यामर्दको लागी । यह जानि सब ऋपिनि तियागी॥शाप दियो ताको या भाई।जो तोहि पिये सुनरकाहि माईकचविनु शुक्रसुता दुख पायो। तब ऋपितासों कहि समुझायो।। मारयो कचको असुरनधाई । मदिरामें मुहि दियो पियाई ॥ ताहि जिवाऊं तो में मरों। जो तुम कहो सु अब में करों । कह्यो विनयकार सुनि ऋपिराई । दोउ जिव सो करो उपाई। संजीवनितव काह पढ़ाई । तासेती यों कह्यो समुझाई ।। जय तुम निकार उदरते आवहु । याविद्याकीर मोहिं जिवावह ॥ उदर फारि तिहिं वाहर कियो । मृतक कच ऐसी विधिजियो ॥ सु जब उदरते वाहर आयो संजीवनि पढ़ि शुक्र जिवायो ॥ बहुतकाल व्यतीत जव भयो। कच ऋपि ऋपि तन यासों करो ॥ जो तुमरी मोहिं आज्ञा होई । तात मातको देखों जोई । ऋपितनया को मोहिं विवाहि । कच कह्यो तू गुरु नगनी आहि । तब तिन शाप दियो या भाई । विद्या पढ़ी सु वृथा जाई । कचहूं ताहि कहयो या भाई। विप्र पुरुप तोहि मिले न आई। यह कहि कच अपने गृह आयो । पिता पांस वृत्तान्त सुनायो । शुक नृप सों ज्यों कहि समुझायो। सूरदास त्योंही कहि गायो।। १६९ ॥ देवयानी फूष निपातन, रागा ययाति पाणिग्रहण, शुभ शाप, रानपुत्र योवन भोग, वैराग्य फार मोक्ष प्राप्ति । राग भैरो ॥ दानव उपपर्वा वलभारी । नाम शरमिष्टा तासु कुमारी॥ ताहि देवयानी सों प्यार । रहे न तासों पल भरि न्यार ॥ एक बार ताके मन आई । न्हावन काज प्रयाग सिधाई ॥ - - - -